उपनिषत् के आत्मा का स्वरूप ।
न
प्राणमन्तरात्मेत्याख्यायते । तत्र वागुपहिता अथ वागेवेदं सर्वम् ।
यस्मान्न जातः परो अन्यो
अस्ति य आविवेश भुवनानि विश्वा ।
प्रजापतिः प्रजया
संरराणस्त्रीणि ज्योतींषि सचते स षोडशी ।। शुक्लयजुर्वेद 8-36।।
संसार में जो कुछ
जातप्रपञ्च है, वह सव जिससे उत्पन्न हुये हैं – विना जिसके सव अनुपपन्न है – वह
विश्व के सृष्टब्रह्म है, जिसे अपरब्रह्म भी कहते
हैं । जो सव में प्रविष्ट होकर सवको सत्तावान् करता
है, वह प्रविष्टब्रह्म है, जिसे
परब्रह्म भी कहते हैं । जो इन दोनों से परे होने के कारण शास्त्र के मर्यादा तथा
अधिकार के वहिर्भूत है, वह परात्परब्रह्म कहते हैं । इसीलिये उपरोक्त मन्त्र
त्रीणि ज्योतींषि कहा । परन्तु उस तृतीय का स्वरूप के सम्बन्ध में कुछ नहीँ कहा ।
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह – जहाँ से वाणी विरत हो कर प्रत्यावर्तन
करती है, जो मन से भी प्राप्त होने के योग्य नहीँ है – इसी के विषय में कहा जाता
है । सचते शव्द से इन तिनों का सदा समवाय सम्बन्ध से रहने का निर्देश किया । यही
पुर परिग्रह होने से प्रजापति कहलाता है । वही प्रजापति विश्व को सृष्टि कर के उस
में प्रबिष्ट हो जाता है (तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् – तै. उ. 2-6-1) । इसी का शास्त्राधिकृत
भाग को षोडशी कहा जाता है, जिसका अपर नाम अमृतात्मा है । इसका दो विवर्त है, जिसे
प्रविष्ट अक्षर तथा सृष्ट क्षर कहते हैं । यह तीनों अविनाभावी है – एक अपर के विना
नहीं रहते ।
गताः कलाः पञ्चदश
प्रतिष्ठा देवाश्च सर्वे प्रतिदेवतासु ।
कर्माणि
विज्ञानमयश्च आत्मा परेऽव्यये सर्व एकीभवन्ति ।। मुण्डकोपनिषद – 3-2-7 ।।
इस षोडशी का अपर
नाम अव्यय है, जिसमें पञ्चदश कलायें निहित है । उनका समष्टि ही षोडशी है । यह पञ्चदश
कलायें पञ्चीकरण के द्वारा आत्मक्षर (ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, सोम, अग्नि) से उसी नाम का विश्वसृट्, 5 पञ्चजन (प्राण, आपः, वाक्, अन्न, अन्नाद), 5 पुरञ्जन (वेद, लोक, प्रजा, पशु, भूत), तथा 5 पुर (स्वयम्भू, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्रमा, पृथिवी) है । यह पञ्चदश अङ्ग है । इनका समष्टि षोडशी अङ्गी
है । विश्व के सवकुछ इसी षोडशीप्रजापति से वना है (सर्वमुह्येवेदं प्रजापतिः –
शतपथब्राह्मणम् – 5-1-1-4) । इसीलिये विश्व के सवकुछ षोडशकल है (षोडशकलं वा इदं
सर्वम् - शतपथब्राह्मणम् – 13-2-2-13) ।
विश्वमें उक्थ, अर्क, अशीति तीन विभाग है । इन्हे
आत्मा, प्राण और पशु भी कहते हैं । जो केन्द्रमें है,
जिसके सत्तासे विश्वका अथवा किसी विश्वसन्तान का सत्ता है,
उसे उक्थ कहते हैं । यही अव्यय है, जिसका आंशिक विवर्तन तो
होता है, परन्तु व्यय नहीँ होता । उक्थका सम्बन्ध
विश्वके त्रिवृत्करण से है । उक्थसे निकलने वाले रश्मियां
अर्क कहलाती है । यही अक्षर है । वाहर के भाग अशीति है, जिसे दृश्यमान होनेसे पशु कहते हैं – यदपश्यत्तस्मादेते पशवः (शतपथब्राह्मणम् – 6-2-1-2) । यही क्षर है । पशु ही अन्न होता है । उक्थ सवका अत्ता - खानेवाला -
होनेसे आत्मा कहताता है । सव इसीका ग्रास वनते हैं – यह किसीका ग्रास नहीं वनता ।
चेतन पुरुष, जो अमृतात्मा
नाम से भी जाना जाता है, तथा विश्व, अविनाभावी है । अधिदैवत में इनका विवर्त
अव्यक्त, महान, विज्ञान, प्रज्ञान, भूत है । चेतनका अवतरण इनमें इसी क्रम से होता
है । इसी के सन्बन्ध होने से वह भी आत्मा कहलाते हैं । पुर भाव विश्व है । इनका विवर्त स्वयम्भू, परमेष्ठी, सूर्य,
चन्द्रमा, पृथिवी है ।
आत्मा शव्द सापेक्ष है । जो
किसीका उक्थ, ब्रह्म, साम है वह उसका
आत्मा है । बृहत्त्वात् बृंहणत्वात् वा – जो सवसे बृहत् अथवा सवको छन्दित
करके रखता है उसे ब्रह्म कहते हैं । ब्रह्म सवका प्रतिष्ठा है - ब्रह्म वै सर्वस्य प्रतिष्ठा । समं इति मेने – यो आलोम
आनखाग्र सर्वत्र समान भावसे रहता है, वह साम कहलाता है । आत्माका वहुत अवान्तर विभाग होते हैं । परन्तु उनका अव्यक्तात्मा, महानात्मा, विज्ञानात्मा, प्रज्ञानात्मा, तथा भूतात्मा –
इन पाँचोँमे अन्तर्भाव करदिया गया है । प्राण
सुप्तावस्थामें बल, कुर्वाण अवस्थामें प्राण
तथा निर्गच्छद् अवस्थामें क्रिया कहलाती है । इनके अवान्तर विभाग वहुत सारे हैं,
जिनमें प्राणादि पञ्च मुख्य माने गये हैं ।
छन्दाँसि पोष अन्नानि
सलिलान्यग्न्ययः क्रमात् ।
पञ्चैते पशवन्नित्यं
प्राणेष्वेते प्रतिष्ठिताः ।
पशु पाँच होते हैं छन्द,
पोष, अन्न, सलिल और अग्नि । यह प्राणके सहारे रहते हैं । इनके अवान्तर
विभाग वहुत सारे हैं।
प्रत्येक वस्तु वयुन नाम से
प्रसिद्ध है । इसमें वय, वयोनाध यह दो भाग रहता है ।
जवतक वयोनाध सुरक्षित रहता है, कोइ वस्तुको अपना अन्न नहीं
वना सकता । वयोनाधसे वस्तुको छन्दित करनेवाला तत्वको हि छन्द कहते है । छन्द
असंख्य है । किन्तु उनको चतुष्टयं वा इदं सर्वं मत से मा, प्रमा, प्रतिमा, अस्रीवय नामसे चार विभाग करदिया गया
है । यह पशु विभाग है जिसे आधुनिक विज्ञान में nucleus, intra-nucleic field, electron orbit and
electron sea कहते है । साकञ्जनां
सप्तथमाहुरेकजं मत से इन्हे गायत्री, उष्णीक्,
अनुष्टुप्, बृहती, पङ्क्ति, त्रिष्टुप्, जगती आदि नामसे सात विभागमें अन्तर्भाव
करदिया गया है । यह प्राण विभाग
है, जो आधुनिक विज्ञान में gravitational force के सामुहिकनाम से जाने जाते हैं ।
बल, वीर्य, द्रविण भेदसे पोष तिनप्रकारके है । इनसे आत्मभाग
पुष्ट होता है । इसलिये इन्हे पोष कहते हैं । इनमेंसे बल, वीर्य, आत्माके अन्तरङ्ग तथा द्रविण वहिरङ्ग है । शरीर
सम्पत्ति बल है । प्राण सम्पत्ति वीर्य
है । मन सम्पत्ति विक्रम है । हाथी में बल है । सिंह में वीर्य है । मनुष्य में विक्रम
है । ब्रह्म, क्षत्र, विट् तीनोंमेसे एक सम्पत्ति वीर्य है । वित्त
सम्पत्ति द्रविण है ।
अन्नका वहुत अवान्तर विभाग
है । किन्तु इनको सात मुख्य विभागमें अन्तर्भाव करदिया गया है । यह सात ज्ञान,
क्रिया, और पञ्चभूत है । पञ्चभूत
वाक् का वस्तु है । क्रिया प्राण का वस्तु है । ज्ञान मन का वस्तु है । इसीलिये स
वा एष आत्मा वाङ्गमयः प्राणमयो मनोमयः कहागया है । अन्न ही पिपर्ति शरीरमिति –
पतनशील (degeneration) होने से – पुरीष कहलाता है (अन्नं वै पुरीषम् - शतपथब्राह्मणम् – 8-5-4-4) । उसी कारण से (पतनशील
होने से) यह पृथिवी भी पुरीष कहलाता है (पुरीषं वा इयम् - शतपथब्राह्मणम् – 12-5-2-5) । इस प्रक्रिया केवल शक्ति अथवा बल के द्वारा सम्भव है । अतः कहागया
है अथ यत्पुरीषं स इन्द्रः - शतपथब्राह्मणम् – 10-4-1-7 – पुरीष ही
इन्द्र है, जो बलस्य निखिलाकृति – समस्त बलों का मूलभूत स्वरूप है । इसी को
माध्याकर्षण बल कहते हैं ।
सलिलको सरीर भी कहते हैं ।
सूर्य्यमाण इरायुक्त तत्त्वविशेष ही सरीर है । आपः वा इदमग्रे सलिलमासीत् में
इसीका वर्णन है । यत् पर्यपश्यत् सरीरस्य मध्ये..में सरीर सलिलका वाचक है । सरत्
इरा यस्य – इस व्युत्पत्तिसे नानाभावमें परिणत हुआ रस सरीर कहलाता
है । ऋतुएँ इसीके अन्दर आते हैं ।
पुरुष, अश्व, गौ, अवि, अजा भेदसे अग्नि पाँच प्रकारका है, जैसेकि पुरुषसूक्तमें वतलाया गया है । सौर सम्वत्सराग्नि
पार्थिव उखामें वर्षभर रहकर वैश्वानर बनती है । वैश्वानर चित्ररूपमें परिणत होता
है । चित्र कुमार वनति है । कुमाराग्नि आगे जाकर पुरुषादिस्वरूपमें परिणत होती है
। चेतनमात्रमें शरीरनिर्माण करनेवाला वैश्वानर नामक पुरुषपशु है । अन्योंके
अपेक्षा मनुष्योंमें यह पुरुषभाग अधिक रहता है, इसिलिये मनुष्योंको पुरुष कहते हैं । वस्तुतः वस्तुमात्र पुरुष है ।
वैश्वानरही सवका शरीर वनाहुआ है । इसीलिये पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्
कहागया है । प्रतिफलित सौर अग्नि अश्वपशु है । कारण प्रतिफलित किरणोंसे ही हम सव
देखते हैं । इससे अश्वपशुका आत्मा वनता है । अतएव चेतनअश्व अश्व कहलाता है । इस
उभयविध अश्वका कठोपनिषद् के अश्वत्थ प्रकरणमें वर्णन है । सूर्यसे सीधी आतीहुइ
रश्मीयें गौ कहलाती है । इससे जिस पशुका आत्मा वनता है, उसे गौ कहते हैं । इसीलिये इसे माता रूद्राणां दुहिता वसुनां श्वसादित्यानाम्
अमृतस्य नाभिः कहागया है । वृक्षोंमें हरियाली पैदा करनेवाला द्यावापृथीव्यात्मक
अब् गर्भित अग्नि अवि है । इससे जिस पशुका आत्मा वनता है, उसे अवि कहते है । एतदतिरिक्त पार्थिवादि अवान्तर सारे अग्नि अज नामसे जाने
जाते हैं ।
यह पाँच पशु
विभिन्नमात्रामें सवमें रहते हैं । ये पाँचोँ पशु आग्नेय है । यह पशु की एक जाति
है । वेदमें जहाँ कहिँ पशु शव्द है प्रकरणानुसार छन्द, पोष, अन्न, सलिल और अग्निमे से
किसी एक का सम्बन्ध समझना चाहिये । यह पाँचोँ पशु आत्माकी श्री है । इसीलिये
कहागया है कि पशवो वै श्रीः । प्राणयुक्त आत्मा सत्यात्मा कहलाता है । परन्तु यदि
उसमें पशुओंका सम्बन्ध कर दियाजाता है तो वह यज्ञात्मा कहलाता है । यज्ञ का स्वरूप
पशुओँ पर निर्भर है । इसीलिये शतपथब्राह्मणम् 3-1-4-9 में कहागया है कि पशवो हि यज्ञः ।
इसप्रकार पाञ्च आत्मा,
पाञ्च प्राण, और पाञ्च पशुओँ को
लेकर समष्ट्यात्मक जो षोलहवीं स्वरूप वनता है उसे प्रजापति कहते हैं । इन्हीं
तीनोंको कठोपनिषदमें अमृत, ब्रह्म, शुक्र नामसे निरूपण कियागया है । पाञ्चों आत्मा अमृत है ।
पाञ्चों प्राण ब्रह्म है । पशुविशिष्ट प्राणभाग शुक्र है । एक के तीन विवर्त्त है
। इसीलिये कठमें कहागया है कि तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते । यह है
उपनिषत् के आत्मा का स्वरूप ।
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