Friday, May 08, 2020

अक्षरों के वर्गीकरण, उच्चारणप्रक्रिया तथा संख्या


अक्षरों के वर्गीकरण, उच्चारणप्रक्रिया तथा संख्या

पाणिनीय शिक्षा में कहा गया है –
त्रिषष्टिश्चतुःषष्टिर्वा वर्णाः सम्भवतो मताः ।
प्राकृते संस्कृते चापि स्वयंप्रोक्ताः स्वयंभुवा ।
आकाशसम्भूत वर्णों मे अथवा ब्रह्माजी के मत में प्राकृत तथा संस्कृत के वर्ण संख्या 63 अथवा 64 कहागया है ।

इनमें स्वरवर्ण 22 है । स्पर्शवर्ण 25 है । अन्तस्थ वर्ण 4 है । उष्मवर्ण 4 है । अयोगवाह 4 है । यम, जो अयोगवाह में भी परिगणित होता है, 4 है । सव मिला कर 63 है । अयोगवाह के अन्तर्गत अनुस्वार का आगमानुसार एवं केवलानुसार दो भेद करने से वर्णसंख्या 64 हो जाता है ।

ध्वनियों के उच्चारण में वायु का महत्वपूर्ण योगदान है । वायु का उद्गमस्थान आकाश है । उचित करणों से युक्त होने पर वायु शव्दरूप ग्रहण कर लेती है । इसीलिये कहा गया है – द्वे ब्रह्मणि वेदितव्ये शब्दब्रह्म परां च यत् । शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ प्रश्वास के समय जो वायु को हम फेफडे से निकालते हैं, वही वायु वर्णोत्पत्ति का कारण है । उस वायु को मुख विवर में रोक कर अथवा अन्य उपायों से विकृत करने से वायु विशिष्ट स्वरूप प्राप्त करता है । इसके लिये मुख विवर में स्थित दो प्रकार के अवयवों – करण तथा स्थान – की आवश्यकता होती है । सक्रिय गतिशील अङ्ग को करण तथा निष्क्रय एवं अपेक्षाकृत अचल अङ्ग को स्थान कहते हैं । करण वह अङ्गविशेष है, जो उच्चारण के लिये अपेक्षित व्यापार (प्रयत्न) करता है । स्थान वह अङ्गविशेष है, जहाँ भीतर से वाहर आती हुयी वायु को रोक कर अथवा अन्य उपायों से उसमें विकार सृष्टि कर के वर्णों को उत्पन्न किया जाता है ।

प्रयत्न दो प्रकार के होता हैं – वाह्य तथा आभ्यन्तर । जो अपेक्षित व्यापार मुख के वाहर अर्थात स्वरयन्त्र में किया जाता है, उसे वाह्यप्रयत्न कहते हैं । इसमें स्वरतन्त्रियाँ ही मुख्य सक्रिय उच्चारण अवयव है । जव वायु श्वासनलिका के मार्ग से फेफडे से निकालता हैं, तव स्वरयन्त्र से पूर्व इसमें किसी भी प्रकार का विकार नहीं होता । स्वरयन्त्र ही प्रथम उच्चारण अवयव है, जहाँ वायु में कुछ विकार सृष्टि होता है । इस के दो स्थितियाँ होता है – विवृत और संवृत् ।

विवृत स्थितिमें स्वरतन्त्रियाँ एक अन्य से दूर रहती है तथा स्वरयन्त्र का मुख (कण्ठद्वार) पूर्णरूपेण खुला रहता है । फलतः फेफडेसे वाहर निकलतीहुई प्राणवायुका स्वरतन्त्रियोँ के साथ घर्षण नहींहोता । इसीलिये उनमें कम्पन नहींहोता । इस स्थिति में स्वरयन्त्रमुख से निकली हुई प्राणवायु श्वास कहलाती है (श्वसँ प्राण॑ने) । संवृत स्थितिमें स्वरतन्त्रियाँ एक अन्य के अत्यधिक निकट होती है । स्वरयन्त्रमुख बन्द सा हो जाता है । जब स्वरतन्त्रियाँ इस स्थितिमें होती है, तो फेफडे से वाहर निकलती हुई वायु का स्वरतन्त्रियोँ के साथ घर्षण होता है । इसीलिये उनमें कम्पन हो जाता है । इस स्थिति में स्वरयन्त्रमुख से निकली हुई वायु नाद कहलाती है (णदँ अव्य॑क्ते॒ शब्दे॑) ।

वर्णों के उच्चारण के लिये मुख के भीतर जो प्रयत्न किये जाते हैं, उसे आभ्यन्तर प्रयत्न कहते हैं । इसे आस्यप्रयत्न अथवा मुखप्रयत्न भी कहते हैं । वर्णोच्चारण में आभ्यन्तर प्रयत्न का वहुत महत्त्व है । आभ्यन्तर प्रयत्न से ही मुख के उच्चारणावयव स्वरयन्त्र के द्वारा प्रदत्त श्वास तथा नादसंज्ञक वायु से भिन्न भिन्न प्रकार के वर्णों को उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं । आभ्यन्तर प्रयत्न का संवृतता, विवृतता, अस्पृष्टता, स्पृष्टता, ईषत्स्पृष्टता, अर्धस्पृष्टता विभाग है । अ कार का आभ्यन्तर प्रयत्न अस्पृष्ट है । स्पर्शवर्णों का आभ्यन्तर प्रयत्न स्पृष्ट है । अन्तस्थवर्णों का आभ्यन्तर प्रयत्न ईषत्स्पृष्ट है । ऊष्मवर्णों का आभ्यन्तर प्रयत्न अर्धस्पृष्ट है ।

जिस स्थान पर वायु को विकृत कर के किसी वर्णविशेष को उत्पन्न किया जाता है, उसी स्थान को उस वर्णविशेष का उच्चारणस्थान कहते हैं । यथा भीतर से वाहर आती हुई वायु को यदि तालु पर विकृत किया जाय, तो वह वर्ण तालव्य होगा । यदि मूर्धा पर विकृत किया जाय, तो वह वर्ण मूर्धन्य होगा । उसी प्रकार जिह्वामूलीय, दन्तमूलीय, दन्त्य, ओष्ठ्य, कण्ठ्य, नासिक्य आदि । सक्रिय उच्चारणावयवों (करणों) तथा उनसे निष्पन्न वर्णों का प्रतिपादन जिह्वाग्र, प्रतिवेष्टित जिह्वाग्र, जिह्वामध्य, ओष्ठ, नासिका, दन्ताग्र, नासिकामूल, हनुमूल, हनुमध्य से करते हैं ।

वर्णों का उच्चारण के लिये जितना समय लगता है, उसे मात्रा कहते हैं । एक वार पलक पतन में जितना समय लगता है, उसे एक मात्रा कहते हैं । जिस स्वर का उच्चारण समय एक मात्रा है, उसे ह्रस्व स्वर कहते हैं । उच्चारण समय दो मात्रा होने से उसे दीर्घ स्वर कहते हैं । उच्चारण समय तीन मात्रा होने से उसे प्लुत स्वर कहते हैं ।

जो स्वयं राजते – किसी अन्य के अपेक्षा किये विना अपने आप को प्रकाशित करता है, उसे स्वर कहते हैं । आकाश तथा वायु से सम्भूत एक शव्दजाति का यह वर्गीकरण उसका अपवाद अथवा आक्षेप के कारण होने से भी, स्वर्यते अर्थमें उसे स्वर कहते हैं (स्वरँ आक्षे॒पे) । स्वर को कार भी कहते हैं । व्यज्यते संयोज्यते (वि + अजिँऽ भा॒षार्थः॑ + ल्युट्) अर्थमें ककारादि क्षकारान्त वर्णों को व्यञ्जन कहते हैं । इन्हे हल् भी कहते हैं । इनका उच्चारण समय अर्धमात्रा है । हम यदि क उच्चारण करते रहेंगे, क् के पश्चात् वह अ हो जायेगा । कारण क शव्द क्+अ मिलकर वना है । विना अ के आश्रय के, क अपने आप को प्रकाशित नहीं कर सकता ।

वायु जव स्वरतन्त्रीयों को झकझोर कर ओष्ठ से विना वाधा के निर्गत होता है, तव वह अ वनजाता है । ओष्ठ का विकार से उन्मेष होने से वही अ, इ तथा संकोच होने से वही अ, उ वन जाता है । ऋ तथा लृ में क्रमशः रेफ् तथा लकार मिले हुये हैं । पृथक् रूप से सुनाई न पडनेवाले ये स्वरतत्त्व के साथ मिलकर एक वर्ण ही होते हैं । अतः ऋ तथा लृ स्वरात्मक तथा व्यञ्जनात्मक तत्त्वों के मिलने से बनी हुई मिश्रितध्वनियाँ है । इनमें ¼ अ, ½ रेफ अथवा ल, तथा ¼ अ मिलकर रहते हैं । आद्यन्त स्वरवर्ण रहने से इसे संस्कृतमें स्वरवर्ण में गणना की जाती है । परन्तु तमिळ में ईसे व्यञ्जनवर्ण में गणना की जाती है । ऋ के स्थान पर (rra) तथा लृ के स्थान पर (zha) लिखा जाता है ।

, , उ, ऋ का ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत - यह 3 भेद होने से यह 12 प्रकार के हो जाते हैं । लृ का दीर्घ और प्लुत 2 भेद होते हैं । अ और इ, ई के सन्धि से ए, ऐ तथा अ और उ, ऊ के सन्धि से ओ, औ वनते हैं । इनका दीर्घ और प्लुत भेद से 8 भेद हो जाते हैं । समस्त मिलाकर स्वरवर्ण का 22 भेद होते हैं ।

अ का उच्चारण करते हुये यदि कण्ठ में रोक दिया जाय, और फिर वह विना वाधा के ओष्ठ से निकल जाये, तो वह क वन जाता है । वही यदि दन्त, तालु, मूर्द्धा को छु कर निकलता है, तो ख, ग, घ वन जाते हैं । और वही यदि नासा के रास्ते निकलता है, तो ङ वन जाता है । वैसे ही अ का उच्चारण करते हुये यदि कण्ठ में रोक दिया जाय, और फिर वह दन्त, तालु, मूर्द्धा को छु कर निकलता है, तो च, ट, त वन जाते हैं । और वही यदि ओष्ठ में वाधा प्राप्त होने के पश्चात निकलता है, तो प वन जाता है । इनका भी क वर्ग के जैसा दन्त, तालु, मूर्द्धा, और नासा स्पर्श कर के निकलने से 5 वर्ग तथा कुल 25 वर्ग हो जाते हैं । उच्चारणस्थान को स्पर्श कर के निकलने के कारण इन्हे स्पर्शवर्ण कहते हैं ।

वही अ को यदि कण्ठ के भीतरसे वाहर फेंक दियाजाता है, तो वह भीतरसे आने के कारण अन्तस्थवर्ण कहलाता है । मुख के चार स्थान के स्पर्श से वह य, र, ल, व वन जाते हैं । वही अ को यदि कण्ठ के भीतर से जोर से फेंक दिया जाता है,  तो अधिक गतिमान होने के कारण वह उष्मवर्ण कहलाता है । मुख के तीन स्थान के स्पर्श से वह श, ष, स तथा सीधे निकल जाने से वह ह हो जाता है । इसीलिये पाणिनि का अन्तिम सूत्र है अ अ अर्थात सारे वर्ण व्यावृत अकार से आरम्भ हो कर संवृत अकार में समाहित हो जाते हैं ।

अयोगवाह में अनुस्वार, विसर्जनीय (विसर्ग), जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय – यह 4 भेद होते हैं । यम को भी अयोगवाह के अन्तर्गत माना जाता है । ह्रस्वस्वर पूर्व में होने पर अनुस्वार देढमात्रा काल वाला और पूर्ववर्ती ह्रस्वस्वर आधी मात्र कालवाला होता है । दीर्घस्वर से परवर्ती अनुस्वार आधी मात्र कालवाला और पूर्ववर्ती दीर्घस्वर देढमात्रा काल वाला होता है । अतः अनुस्वार तथा पूर्ववर्ती स्वर के उच्चारणमें दोमात्रा समय लगता है, जो स्वरवर्ण के लक्षण है । परन्तु अन्यव्यञ्जनों की भाँति अनुस्वार भी स्वरकी सहायता के विना उच्चारित नहीं किया जा सकता । इसीलिये इसे संस्कृतमें स्वर तथा व्यञ्जन दोनों वर्ण में गणना नहीं की जाती, परन्तु इसकी अलग संज्ञा अयोगवाह किया जाता है । परन्तु तमिळ में ईसे व्यञ्जनवर्ण में (pronounced nna) गणना की जाती है ।

संवृतकण्ठोत्थित संवारघोष अल्पप्राणाख्य वाह्यप्रयत्नविशिष्ट नादध्वनिजनित हनूमूलस्थान जिह्वामूलकरण स्पृष्टप्रयत्न आद्यांशभूत गकार सहित वैसे ही ध्वनि से उत्पन्न विवृतनासिका के उपरिभाग स्थान वाला, उसके अधोभाग करण, विवृतप्रयत्न द्विमात्रिक पूर्वांगभूत सूर्यदेवतासम्बन्धी शूद्रजातीय आगमानुस्वार है । संवृतकण्ठोत्थित संवारघोष अल्पप्राणाख्य वाह्यप्रयत्नविशिष्ट नादध्वनिजनित विवृतनासिका के उपरिभाग स्थानीय, उसके अधोभागीय करणवाला, विवृतप्रयत्न द्विमात्रिक पूर्वांगभूत सूर्यदेवतासम्बन्धी शूद्रजातीय केवलानुस्वार है ।

विसर्जनीय अत्यन्त परिवर्तनशील वर्ण है । परिस्थिति के अनुसार यह वर्ण ओकार, यकार, शकार, षकार, सकार, जिह्वामूलीय, तथा उपध्मानीय में परिणत हो जाता है । इसका विधान अलग से किया गया है ।

जिह्वामूलीय विवृत कण्ठसे उत्थित विवार अघोष महाप्राण नामक वाह्यप्रयत्नविशिष्ट श्वासध्वनि से उत्पन्न जिह्वामूल के उपरिभागमें विवृत मध्य, उसके अधोभागीय करणवाला विवृतप्रयत्न अणुमात्रिक पूर्वांगभूत सूर्यदेवतासम्बन्धी शूद्रजातीय है । उपध्मानीय विवृत कण्ठसे उत्थित विवार अघोष महाप्राण नामक वाह्यप्रयत्नविशिष्ट श्वासध्वनि से उत्पन्न उत्तरोष्ठस्थान विवृतमध्य अधरोष्ठकरण विवृतप्रयत्न अणुमात्रिक पूर्वांगभूत सूर्यदेवतासम्बन्धी शूद्रजातीय है ।

यम चार है – प्रथम यम, द्वितीय यम, तृतीय यम, चतुर्थ यम । उत्तमेत्तर से अनुत्तम के स्पर्श से यम होता है । पद के मध्य में पञ्चम स्पर्शवर्ण परवर्ती स्थान में होने पर उस पञ्चमवर्ण से अन्य स्पर्शवर्ण का विच्छेद हो जाता है । इसी विच्छेद को यम कहते हैं । यदि किसी भी वर्ग का प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ स्पर्शवर्ण पूर्व में हो, तथा उसके पश्चात् किसी भी वर्ग का पञ्चम स्पर्शवर्ण हो, तो पूर्ववर्ती स्पर्शवर्ण तथा पञ्चम स्पर्शवर्ण के मध्य में यम का आविर्भाव होता है । उदाहरण के लिये रुक्कमः उच्चारण करते समय, ककार का द्वित्व करने पर द्वितीय ककार अनुनासिक उच्चारित होता है । इसी अनुनासिक वर्ण को यम कहते हैं । विवृत कण्ठसे उत्थित विवार अघोष अल्पप्राण नामक वाह्यप्रयत्नविशिष्ट श्वासध्वनि से उत्पन्न संवृतनासिक का उत्तरदन्तमूल के अधोभागीय स्थान वाला जिह्वाग्रकरणक स्पृष्टप्रयत्न अणुमात्रिक पराङ्गभूत वायुदेवतासम्बन्धी ब्राह्मणजातीय प्रथम यम है । अन्य के विषय में उसीप्रकार विचार करना चाहिये ।


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