भारतके प्राचीन घरोहर – वेद स्वरूप मिमांसा।
गीता (15-15) में कहा गया है कि वेदैश्च
सर्वैरहमेव वेद्यः । अर्थात सम्पुर्ण वेदके द्वारा मैं ही जानने योग्य हुँ ।
परन्तु यह वेदतत्व क्या है । इस गीता वाक्यमें मैं के द्वारा पुरुष का वोध कराया
जा रहा है । उसके अनन्तर सव कुछ प्रकृति है । पुरुष शव्द से षोडशकल विश्वात्मा
अव्ययपुरुष को निर्देशित किया गया है । प्रकृति शव्द से अव्ययपुरुष से समन्विता पञ्चपर्वा क्षर विश्वप्रकृति को
निर्देशित किया गया है । विश्वात्मा अव्ययपुरुष दिग्-देश-कालातीत अनादि-अनन्त है ।
विश्वप्रकृति दिग्-देश-कालात्मिका सादि-सान्ता है । इस प्रकार एक वेदतत्व का
पुरुषवेद-प्रकृतिवेद - यह दो विवर्त्त हो जाते हैं । पुरुषवेद अनन्तपुरुष के
सान्निध्य से अनादि-अनन्त है । यही अपौरुषेय वेद है । इसीके लिये इन्द्र-भरद्वाज
सम्वाद में अनन्ता वै वेदाः कहा गया है । तैत्तिरीय ब्राह्मणम् – 3-103-21 में कहा
गया सावित्र्याग्नि के माध्यम से बुद्धिग्राह्य सादि-सान्त तत्त्ववेद प्रकृतिवेद
है, जिसे ऋषिकृत वेद कहा जाता है ।
पुरुषात्मक अनन्तवेद सच्चिदानन्द मूर्त्ति अव्ययपुरुषब्रह्म से समतुलित होता हुआ सच्चिदानन्दमय
है । सत्तात्मक विद् धातु (वि॒दँ॒ सत्ता॑याम्) से सम्पन्न वही वेदशव्द विद्यते इति
वेदः रूपमें अस्ति भावात्मक सत् का संग्राहक है । ज्ञानार्थक विद् धातु (विदँ
ज्ञाने॑) से निष्पन्न वही वेदशव्द वेत्ति इति वेदः रूपमें ज्ञान भावात्मक चित् भाव
का संग्राहक है । लाभार्थक वही वेदशव्द (विदॢँ॑ ला॒भे) से विदन्ति इति वेदः रूपमें
आनन्द लाभात्मक रसरूप आनन्दभाव का संग्राहक है । अतःएव पुरुषवेद
त्रिधातुमूर्त्ति-त्रित्वमूर्त्ति-त्रिज्योतिर्मय षोडशी प्रजापति रूपसे सृष्टि का
मूल आधार है (प्रजापति प्रजया संरराणस्त्रिणि ज्योतिंषि सचते स षोडशी – शुक्ल
यजुर्वेद – 8-36) ।
सादि-सान्त प्रकृतिवेद, प्राकृतवेद, विश्ववेद, छन्दोवेद, वितानवेद, रसोवेद रूप में तत् तत् प्राकृतिक विशेषताओं
के भेद से ऋक्-यजुष्-साम-अथर्व नामों से व्यवस्थित किया गया है । बृहज्जाबालोपनिषत्
में कहा गया अग्निषोमात्मकं जगत् इसीके लिये है । ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र रूप
हृदयात्मक सत्यप्रजापति गर्भित अग्नि-सोम का समन्वय ही विश्व का स्वरूप व्याख्या
है । अग्नि ब्रह्माग्नि, देवाग्नि, भूताग्नि रूपमें त्रेधा विभक्त है । ये ही
एकता-द्विता-त्रिता नामसे जाने जाते हैं । इन्हे ही आङ्गीरस आप्त्यादेवता,
अग्निभ्रातरः तथा त्रेताग्नि कहा जाता है । भार्गव ब्रह्मणपति पवमान सोम तथा
वृत्रात्मक अन्नसोम भेद से सोम का दो विभाग है । तीन अग्नि और दो सोम मिलकर 5 होते
हैं । इनके पञ्चीकरण से जगत् सर्जना कि जाती है । ये ही ब्रह्मनिःश्वसित वेद है ।
चेतन-आख्यान-निवास का वोधक होते हुये (विदँ॒ चेतनाख्याननिवा॒सेषु॑) वही वेदशव्द
विश्व का वेद है ।
पतञ्जलि के महाभाष्यमें लिखा है ति ऋग्वेद के २१
शाखायें है, यजुष् के १०१, साम के १०००
तथा अथर्व वेद के ९9 शाखायें है । इसीसे कुछ लोग शाखाओं का संख्या ११३१ कहते हैं ।
इससे कुछ भ्रम सृष्टि होता है ।
सर्व प्रथम वेद एक ही था जो शतपथ ब्राह्मण के
अनुसार यत् (योऽयं पवते) एवं जु (आकाश) का मिश्रण यज्जु कहलाता था । उसीका ऋक्+यजुष्+साम+अथर्व चार विभाग हुये । गोपथ
ब्राह्मणमें कहा गया है कि ऋचाः मूर्तिः - ऋग्वेद मूर्ति विज्ञान है । मूर्तिः
पार्थिव होता है । पृथिवी का विस्तार 21 अहर्गण (Vedic classification of atomic orbitals) पर्यन्त है । इसे
ही एकविंश स्तोम कहते हैं । यही ऋग्वेद के २१ शाखायें है । याजुषिँ गतिः के अनुसार
यजुर्वेद गति विज्ञान है । यद्देवा इन्द्रते शतम् आदि मन्त्रवर्णित रश्मियों का
जातिविभाग 100 प्रकार का है । मूल यजुर्वेद को मिलाकर यह 101 शाखावाला हो जाता है
। साममय तेजः के अनुसार सामवेद तेजो विज्ञान है । सहस्रांशु के भेदसे इसका 1000 शाखा
कहा जाता है । अथर्वाङ्गीरसमापः के अनुसार अथर्ववेद आपः विज्ञान है (consolidation and
application)। प्रत्येक पिण्ड
त्रिवृत् (9 विभाग वाला) होता है । इसीलिये अथर्ववेद को 9 शाखावाला कहा जाता है ।
द्वापर युगके अन्तमें व्यासजी ने मूल वेदशास्त्र का ऋक्-यजुष्-साम-अथर्व चार विभाग करके अपने चार
शिष्य पैल, वैशम्पायन, जैमिनि तथा सुमन्तु को एक एक वेद शिखाया तथा पुराण अपने
पुत्र सौति को शिखाया । उनके शिष्योंने वेदका प्रचार किया, जो शास्त्र शाखाभेदसे
किञ्चित भिन्न हो गये । वही शाखायें आजकल प्रचलित हो रहे हैं । प्रत्येक शाखा का
शान्तिपाठ अलग होते हैं । वेद के सम्पुर्ण शाखायें आजकल उपलव्ध नहीं होते हैं । वैशम्पायन
के शिष्य याज्ञवल्क्य ने गुरु का अपमान किया था । इसीलिये गुरुने उनको विद्या
उद्गीरण करनेको कहा, जिसे दुसरे शिष्योंने तित्तिर वनकर ग्रहण किया । वह कृष्ण यजुर्वेद
हुआ । याज्ञवल्क्य ने सूर्य का आराधना करके जो वेद प्राप्त किया, वह शुक्ल यजुर्वेद
हुआ । उसी समय से वेद का ब्राह्म और सौर दो परम्पराओं का सृष्टि हुआ ।
अर्थशास्त्र, धनुर्वेद गंधर्ववेद, आयुर्वेद यह ऋगादि चार वेदों के उपवेद है । अन्य समस्त
शास्त्र (शिल्प,सर्प, पिशाच,असुर, इतिहास,पुराण,देवजनविद्या,माया,) इसीके अन्तर्गत हो जाते
हैं ।
प्रत्येक वेद का ज्ञानकाण्डको मन्त्र अथवा
संहिता, तथा कर्मकाण्डको ब्राह्मणम् कहते हैं । ब्राह्मणम् का परिशिष्ट आरण्यक होते हैं । ब्राह्मणम् और
आरण्यक के विभिन्न भाग अथवा अंश को उपनिषद कहते हैं । केवल ईशोपनिषद् यजुर्वेद संहिता का अन्तिम
अध्याय है । शुल्वसूत्र आरण्यक के परिशिष्ट है ।
षड्दर्शन का 3 विभाग किया
जा सकता है । सांख्य और योग अक्षरब्रह्म के विवर्त का वर्णन करते हैं ।
पूर्वमीमांसा ब्राह्णग्रन्थों का तथा उत्तरमीमांसा (वेदान्त) उपनिषदों में पाये
जाने वाले विसङ्गतियों का मीमांसा करते है । न्याय और वैशेषिक क्षर विज्ञान है ।
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