Tuesday, February 13, 2018

उपनिषत् के पुरुष का स्वरूप ।


                             उपनिषत् के पुरुष का स्वरूप ।

उक्थका सम्बन्ध विश्वके त्रिवृत् करण से है । विश्वमें उक्थ, अर्क, अशीति तीन विभाग है । इन्हे आत्मा, प्राण और पशु भी कहते हैं । जो केन्द्रमें है, जिसके सत्तासे विश्वका अथवा किसी विश्वसन्तान का सत्ता है, उसे उक्थ कहते हैं । उक्थसे निकलने वाले रश्मीयां अर्क कहलाती है । वाहर के भाग अशीति है, जिसे दृश्यमान होनेसे पशु कहते हैं -यदपश्यत् तत् पशवः । उक्थ सवका अत्ता होनेसे  आत्मा कहताता है । आत्मा शव्द सापेक्ष है । जो किसीका उक्थ, ब्रह्म, साम है वह उसका आत्मा है । आत्माका वहुत अवान्तर विभाग होते हैं । परन्तु उनका अव्यक्तात्मा, महानात्मा, विज्ञानात्मा, प्रज्ञानात्मा, तथा भूतात्मा – इन पाँचोँमे अन्तर्भाव करदिया गया है । प्राण सुप्तावस्थामें , कुर्वाण अवस्थामें प्राण तथा निर्गच्छद् अवस्थामें क्रिया कहलाती है । इनके अवान्तर विभाग वहुत सारे हैं, जिनमें प्राणादि पञ्च मुख्य माने गये हैं । पशु पाँच होते हैं छन्द, पोष,  अन्न, सलिल और अग्नि । यह प्राणके सहारे रहते हैं । इनके अवान्तर विभाग वहुत सारे हैं।

प्रत्येक वस्तु वयुन नाम से प्रसिद्ध है । इसमें वय, वयोनाध यह दो भाग रहता है । जवतक वयोनाध सुरक्षित रहता है, कोइ वस्तुको अपना अन्न नहीं वना सकता । वयोनाधसे वस्तुको छन्दित करनेवाला तत्वको हि छन्द कहते है । छन्द असंख्य है । किन्तु उनको मा, प्रमा, प्रतिमा, अस्रीवय नामसे चार तथा गायत्री आदि नामसे सात विभागमें अन्तर्भाव करदिया गया है । बल, वीर्य, द्रविण भेदसे पोष तिन प्रकारके है । इनसे आत्मभाग पुष्ट होता है । इसलिये इन्हे पोष कहते हैं । इनमेंसे बल, वीर्य, आत्माके अन्तरङ्ग तथा द्रविण वहिरङ्ग है । शरीर सम्पत्ति बल है । ब्रह्म, क्षत्र, विट् तीनोंमेसे एक सम्पत्ति वीर्य है । वित्त सम्पत्ति द्रविण है । अन्नका वहुत अवान्तर विभाग है । किन्तु इनको सात मुख्य विभागमें अन्तर्भाव करदिया गया है । यह सात ज्ञान, क्रिया, और पञ्चभूत है । पञ्चभूत वाक् का वस्तु है । क्रिया प्राण का वस्तु है । ज्ञान मन का वस्तु है । इसीलिये स वा एष आत्मा वाङ्गमयः प्राणमयो मनोमयः कहागया है ।

सलिलको सरीर भी कहते हैं । सूर्य्यमाण इरायुक्त तत्त्वविशेष ही सरीर है । आपः वा इदमग्रे सलिलमासीत् में इसीका वर्णन है । यत् पर्यपश्यत् सरीरस्य मध्ये..में सरीर सलिलका वाचक है । सरत् इरा यस्य – इस व्युत्पत्तिसे नानाभावमें परिणत हुआ रस सरीर कहलाता है । ऋतुएँ इसीके अन्दर आते हैं ।

पुरुष, अश्व, गौ, अवि, अजा भेदसे अग्नि पाँच प्रकारका है, जैसेकि पुरुषसूक्तमें वतलाया गया है । सौर सम्वत्सराग्नि पार्थिव उखामें वर्षभर रहकर वैश्वानर बनती है । वैश्वानर चित्ररूपमें परिणत होता है । चित्र कुमार वनति है । कुमाराग्नि आगे जाकर पुरुषादिस्वरूपमें परिणत होती है । चेतनमात्रमें शरीरनिर्माण करनेवाला वैश्वानर नामक पुरुषपशु है । अन्योंके अपेक्षा मनुष्योंमें यह पुरुषभाग अधिक रहता है, इसिलिये मनुष्योंको पुरुष कहते हैं । वस्तुतः वस्तुमात्र पुरुष है । वैश्वानरही सवका शरीर वनाहुआ है । इसीलिये पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् कहागया है । प्रतिफलित सौर अग्नि अश्वपशु है । कारण प्रतिफलित किरणोंसे ही हम सव देखते हैं । इससे अश्वपशुका आत्मा वनता है । अतएव चेतनअश्व अश्व कहलाता है । इस उभयविध अश्वका कठोपनिषद् के अश्वत्थ प्रकरणमें वर्णन है । सूर्यसे सीधी आतीहुइ रश्मीयें गौ कहलाती है । इससे जिस पशुका आत्मा वनता है, उसे गौ  कहते हैं । इसीलिये इसे माता रूद्राणां दुहिता वसुनां श्वसादित्यानाम् अमृतस्य नाभिः कहागया है । वृक्षोंमें हरियाली पैदा करनेवाला द्यावापृथीव्यात्मक अब् गर्भित अग्नि अवि है । इससे जिस पशुका आत्मा वनता है, उसे अवि कहते है । एतदतिरिक्त पार्थिवादि अवान्तर सारे अग्नि अज नामसे जाने जाते हैं ।

यह पाँच पशु विभिन्नमात्रामें सवमें रहते हैं । ये पाँचोँ पशु आग्नेय है । यह पशु की एक जाति है । वेदमें जहाँ कहिँ पशु शव्द आवे प्रकरणानुसार छन्द, पोष,  अन्न, सलिल और अग्निमे से किसी एक का सम्बन्ध समझना चाहिये । यह पाँचोँ पशु आत्माकी श्री है । इसीलिये कहागया है कि पशवो वै श्रीः । प्राणयुक्त आत्मा सत्यात्मा कहलाता है । परन्तु यदि उसमें पशुओंका सम्बन्ध कर दियाजाता है तो वह यज्ञात्मा कहलाता है । यज्ञ का स्वरूप पशुओँ पर निर्भर है । इसीलिये शतपथब्राह्मणम् 3-1-4-9 में कहागया है कि पशवो हि यज्ञः ।

इसप्रकार पाञ्च आत्मा, पाञ्च प्राण, और पाञ्च पशुओँ को लेकर समष्ट्यात्मक जो षोलहवीं स्वरूप वनता है उसे प्रजापति कहते हैं । इनहीं तीनोंको कठोपनिषदमें अमृत, ब्रह्म, शुक्र नामसे निरूपण कियागया है । पाञ्चों आत्मा अमृत है । पाञ्चों प्राण ब्रह्म है । पशुविशिष्ट प्राणभाग शुक्र है । एक के तीन विवर्त्त है । इसीलिये कठमें कहागया है कि तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते । यह है उपनिषत् के पुरुष का स्वरूप ।


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