Tuesday, February 13, 2018

आधुनिक समाजमें वेद का प्रासङ्गिकता


आधुनिक समाजमें वेद का प्रासङ्गिकता

जगन्नाथ पुरी के गोवर्द्धनपीठ के पूर्व शङ्कराचार्य भारतीकृष्ण तीर्थ महास्वामी से एक विदेशी व्यक्ति ने प्रश्न किया पृथ्वी पर हिन्दुओँ का संख्या अल्प है । उनमें से सब आपको नहिँ मानते । तो आप कैसे अपनेको जगद्गुरु कहलाते हैँ । उत्तरमें उन्होने कहा जगद्गुरु का अर्थ यह नहिँ कि मैं जगत् का गुरु हुँ । परन्तु जगत् में कहिँ भी कोइ भी व्यक्ति यदि आध्यात्मिक मार्गमें प्रगति के लिये मेरा सहायता चाहता हो, तो मैं उसका मार्गदर्शन करने के लिये वाध्य हुँ । यही मेरा जगद्गुरुत्व है । अपनेको प्रासङ्गिक वनाने का यह एक प्रकृष्ट उदाहरण है ।

वेदके प्रासङ्गिकता पर विचार करने से पूर्व, वेद क्या है, यह जानना चाहिये । ऋक्, यजुः, साम, अथर्व नामसे प्रसिद्ध चार पुस्तकें वेदशास्त्र है । यह वेद नहिँ है । वेद सामान्य है । वेदशास्त्र विशेष है । सामान्य, ज्ञान तथा मुक्ति का विषय है – प्रतिसञ्चर मार्ग है । विशेष, विज्ञान तथा सृष्टि का विषय है - सञ्चर मार्ग है । सत्ता महासामान्य है । इसीलिये ज्ञानको एक एवं अखण्ड कहा जाता है । अनेक से एक के प्रति गमन ज्ञान है । एक से अनेक के प्रति गमन विज्ञान है । सर्व खल्विदं ब्रह्म मुक्तिरूप ज्ञान मार्ग है । ब्रह्मैवेदं सर्वम् सृष्टिरूप विज्ञान मार्ग है । ज्ञान विज्ञान के विना अधुरा है । विज्ञान ज्ञान के विना अधुरा है । दोनों के समन्वय से ब्रह्म का पूर्ण ज्ञान होता है । इसीलिये मुण्डकोपनिषद् 3-2-6 में कहागया -
वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः सन्यासयोगाद्यतयः शुद्धसत्त्वाः ।
ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे ।
यहाँ वेदान्तविज्ञान कहागया है – वेदान्तज्ञान नहिँ । ईशोपनिषद् भी उद्घोषणा करते हैं कि –
अन्यदेवाहुर्विद्ययाऽन्यदाहुरविद्यया । इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ।।
यही गीताका मूल उपदेश है । इसीलिये भगवानने गीता 7-2 में कहा है कि
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः । यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ।।

ब्रह्मके ज्ञानविज्ञानात्मक होनेसे भारतके मुनि-ऋषि दोनों के उपासक थे । तभी देश उन्नत था । परवर्ति समयमें सायण से लेकर अन्य व्याख्याताओं ने विज्ञानका उपेक्षा कर केवल स्तुति तथा देवपुजन का सहायता से ज्ञान का अनुसरण किया । वह लोग भुलगये कि यज् धातुका अर्थ केवल देवपूजन नहिँ, परन्तु सङ्गतिकरण भी है । अग्निमीळे में ईळे शव्द का अर्थ विकृत करके ईडे नहिँ करना चाहिये । सदागतिशाल तथा सवको प्रेरित करनेवाले अग्नि के लिये ईळे का अर्थ इलँ प्रेर॑णे धातुसे करना चाहिये । यह केवल विज्ञानभाष्यमें सम्भव है ।  अग्निषोमात्मक जगत् श्रुतिवाक्यमें अग्निषोम शव्द अग्नि ओर घी नहिँ है । यज्ञका अर्थ केवल अग्निमें घी डालना नहिँ, प्रकृतिके नियमों का विकल्प वनाकर इच्छित वस्तुका प्राप्त करना भी है । तभी तो श्रुति कहती है कि यद्देवाः अकुर्वन् तत् करवाम । तभी तो भारतीकृष्ण तीर्थ महास्वामीने वैदिक गणित का प्रचार प्रसार किया ।

ज्ञान का आलम्बन विज्ञान है । तभी तो गीता 7-2 में कहागया है कि ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्षाम्यशेषतः। जब से हमारे देशमें विज्ञानका तिरस्कार करके केवल ज्ञान का अनुसरण होने लगा, तभी से हमारा अधःपतन आरम्भ हो गया । न हम ज्ञान का पराकाष्ठा दिखा पाये न विज्ञानका लाभ उठापाये । विज्ञानके लिये हम पाश्चात्य जगतके प्रति निर्भरशील है । उधर पाश्चात्यजगत विज्ञानका अन्धानुसरण करके आज मानसिक अवसाद से ग्रस्त होकर पूर्व कि दिशामें देख रहा है । इसीलिये बृहदारण्यक उपनिषद 4-3-32में कहा गया है कि –
सलिल एको द्रष्टाऽद्वैतो भवत्येष ब्रह्मलोकः .... एषास्य परमा गतिरेषास्य परमा सम्पदेषोस्य परमो लोक एषोस्य परम आनन्द एतस्यैवाऽऽनन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति । ज्ञान तथा विज्ञानके अद्वैत – द्वन्दराहित्य - हि अभ्युदय का कारण है ।

किसी व्यक्ति, वस्तु अथवा भावके प्रति ध्यानदेना अथवा अभिमुख होना प्रसङ्ग है । यह आभिमुख्य किसी व्यक्ति, वस्तु अथवा भावमें अन्वित होकर यावत्कालस्थायी होना उसकी प्रासङ्गिकता है । उससे उस व्यक्ति, वस्तु अथवा भावके प्रति सङ्ग जात होता है । सङ्ग से यथाक्रमे काम, क्रोध, सम्मोह, स्मृतिविभ्रम, आदि का उदय होता है (गीता – 2/62-63)। इसीलिये हमारा आभिमुख्य वदलता रहता है । साथ ही उस व्यक्ति, वस्तु अथवा भावके प्रासङ्गिकता भी वदलता रहता है ।

आधुनिक समाजमें भौतिकविलास सुखभोग नामसे प्रमुख आकर्षणका केन्द्र वना हुआ है । परन्तु यह सुखभोग क्या है? एक का अन्यके उदरमें प्रवेश करना भोग है । इससे जात मनोभावको सुख अथवा दुःख कहते हैं । इसीलिये सुख-दुःख-साक्षात्कार को भोग कहते हैं । परन्तु यह सुख-दुःख है क्या? ख अर्थात् शुन्यमें अध्यारोपित सु भावना को सुख तथा दुः भावना को दुःख कहते हैं । वास्तवमें सुख-दुःख जैसा कुछ होता ही नहिँ । केवल भोग ही होता है । भोग का सम्बन्ध विषय तथा जीव से है, जो क्षर तथा अक्षर से सम्बन्धित है । सुख-दुःख परष्पर विरोधी है । जहाँ सुख हो वहाँ दुःख नहिँ रह सकता । परन्तु हम सवमें यह द्वन्द भाव देखते हैं । यह अज्ञानके कारण होता है । यदि हम उनके स्वरूपको पहचान पायेंगे, तो उसी ज्ञानसे हम द्वन्दरहित अव्यय की प्रति दृष्टि देंगे तथा द्वन्द भावके प्रति उदासीन हो जायेंगे ।

कौटिल्य नीतिसूत्र के अनुसार -
सुखस्य मूलं धर्मः ॥२॥ धर्मस्य मूलमर्थः ॥३॥
इसीलिये आजकल अर्थको धर्म और काम के लिये साधन मानते हैं । परन्तु यह भ्रमात्मक है ।

पुरुषार्थभूत धर्म और काम के लिये अर्थ साधन नहीं हो सकता कारण कामनाको पुरुषार्थ नहीं कह सकते । भ्रम से ही उसके फल को सुख माना जाता है । विषयसम्बन्ध रूप कामनामक पुरुषार्थ अर्थ से संभव होता है । परन्तु उस कामसुखसे विशेष क्या होता है? यदि नारीसंभोग से भिन्न अन्य सुख को भी कामसुख माने, तो भी यह तर्क व्यर्थ है । भ्रम से अतिरिक्त उसमें भी कोई सुख नहीं है । जैसे एक श्रमिक थका हुआ हो और उस पर कोई पैर से ठोकर मारे तो उसे शरीरमर्दनका सुख मिलता है । ऐसे ही भोगेच्छा से आर्त मूर्ख सम्भोग से समझता है कि सुख मिलगया ! यदि यह सुख है, तो भी उसमें अर्थ साधन नहिँ है । जिनके पास कोई अर्थ नहिँ ऐसे श्वान आदि भी वह सुख पाते देखे जाते हैं । पुरुषको जैसे नारी अच्छा लगती है वैसे श्वान को श्वानॊ भी अच्छा लगती है । इसी प्रकार पुष्प-चन्दन आदि के भोग से हुआ सुख भी अर्थहेतुक नहीं है । अर्थशुन्य भ्रमर, कोकिल आदि भी सुगन्ध आघ्राण करते हैं । वह भी स्वादिष्ट रस पान करते हैं । संगीत श्रवण का सुख अर्थ पर निर्भर नहिँ करता । सुन्दर रूप देखकर सुख लेने के लिये भी अर्थ नहिँ चाहिये क्योंकि लोक में निर्धन पुरुष भी सभा आदि में वारनारीयोँ को देख लेते हैं और अन्य युवतियों को भी वे निःसंकोच देख पाते हैं । कोमलस्पर्श पाने के लिये भी अर्थ जरूरी नहीं है । मख्खी आदि जन्तु भी अत्यन्त कोमल पदार्थ स्पर्श कर लेते हैं। वे तो उन सुन्दरीयों के भी मुखों का स्पर्श कर लेते हैं जिन्हें अन्य धनीक भी देख नहीं सकते । जिसके पास हर तरह का पार्यप्त अर्थ है वह भी अर्थ से सारा ही विषयसुख नहीँ पा सकता परन्तु कुछ सुख तो निर्धन भी पा ही लेता है । इस प्रकार अर्थ कामसुख का साधन नहीं ।

परलोक में सुख देने वाला धर्म भी केवल अर्थ से होता ही हो यह संसार में नियमित रूप से देखा नहीं जाता । प्राचीन मुनि-ऋषि जो हमेशा भूख से कमजोर रहते थे और ऐसे निर्धन बहुत से गृहस्थ स्वर्ग गये हैं तथा बहुत धनीक भी प्रायः प्रमादी होने से, नरक गये हैं, जा रहे हैं और जाते रहेंगे । इसलिये स्वर्ग अर्थ से ही मिलता हो यह बात नहीं । अर्थ के बिना अग्निष्टोम आदि यज्ञ सम्पन्न नहीं किये जा सकते । परन्तु उनका फल जो स्वर्ग, वह तो अर्थ के बिना भी मिल सकता है, क्योंकि स्वर्ग दिलाने वाले अनेक प्रकार के साधन हैं । इस तरह अर्थ ही धर्म का निश्चित उपाय हो, यह मान नहीं सकते ।

कुछ लोग अर्थ को मोक्ष के प्राप्तिके हेतु इसीलिये कहते हैं कि उससे यागादि किये जाते हैं । जब यागादि ही मोक्षप्रद नहीं हैं, तो अर्थ मोक्षोपाय नहीं हो सकता ! ज्ञानमात्र से प्राप्य अमरता के लिये ये अग्निष्टोमादि किसी भी प्रकार से साधन नहीं हैं । यह केवल स्वर्ग दिला सकते हैं । अतः तप इत्यादि के समान ही हैं । इसलिये अर्थ के कारण अग्निष्टोम आदि भले ही हों , अमरता अथवा मोक्षोपाय का वह कारण नहिँ हो सकते।

आत्मा की परमानन्दरूपता अन्वय-व्यतिरेक से भी समझा जा सकता है ।  जहाँ आत्मा का सम्बन्ध है वहाँ प्रियता अवश्य होता है। जहाँ आत्मसम्बन्ध नहीं वहाँ प्रियता भी नहीं होती । एक-अपर के शरीरों के प्रति जो अत्यन्त प्रेम है वह किसी भी प्रकार से अन्य के उपकार के लिये नहीं है । परन्तु अपने ही उपकार के लिये है । स्त्री अपनी प्रयोजन के लिये पति से प्रेम करती है । पतिको अपनी प्रयोजन के लिये पत्नी प्रिया होती है । अपने लिये सुख चाहती नारी कामाग्नि के सन्ताप से और अन्न वस्त्र आदि पाने के लिये पति से प्रेम करती है । पति यदि पत्नी के प्रतिकूल हो, तो प्रेम नहीं हो पाता । सामान्य अनुकूलता रखने पर भी यदि पति किसी अन्य नारी में आसक्त हो तो पत्नी को वह किसी अवस्था में प्रिया नहीं होती । अथवा अन्य किसी व्यसन में उसका ध्यान लगा रहता हो, तो भी पत्नी को वह प्रिय नहीं होता । इसी प्रकार पति जो पत्नी से प्रेम करता है वह इसीलिये कि वह कामुक होता है और उसे भोजन आदि सहज भावसे मिल जाता है । यदि ऐसा न हो तो पत्नी उसे कभी प्रिय नहीं होती । जो पत्नी सुरतादि में अपने पति के प्रतिकूल रहे उस पर किसी तरह प्रेम रखने वाला पति संसार में देखा नहीं जाता । अतः यह आत्मा ही प्रिय है । स्त्री-पुरुषों को सदा सर्वाधिक प्रिय यह स्वप्रकाश सदानन्द आत्मा ही है ।

जैसे पति-पत्नी, वैसे ही पुत्र, धन, गवादि, ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि जातियाँ, भूः आदि लोक, देवता, वेद, चर-अचर प्राणी - यह जो सारा ही जगत् है वह सब तभी प्रिय होते है जब अपने को सुख देते हों । जो अपने को सुख न दे, वह कभी प्रिय नहीं होता । कदाचित् जो कोइ प्रतिकूल व्यक्ति पर भी प्रेम करता है, तो वह मोहवश ऐसा करता है । वहाँ भी यदि उस प्रेम से स्वयं को संतोष मिलता हो, तभी प्रेम रहता है । पुत्र आदि जो प्रिय रूप से सब को अनुभव में आते है वे भी प्रतिकूल हो जायें तो प्रिय नहीं रहते । अतः वे अपने लिये ही प्रिय होते हैं । शुकदेव जी कहते हैं: जो समस्त कार्योँ को छोड़ कर सम्यक् प्रकार से शराणागतवत्सल भगवान् की शरण में प्राप्त होता है । वह देवऋण, ऋषिऋण, कुटुम्बी जन और पितृऋण - इन किसी का भी सेवक और ऋणी नहीं रहता । (श्रीमद्भागवत 11/5/41)

योगास्त्रयं मया प्रोक्ता नृणां श्रेयो विधत्सया । ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित् ॥ (श्रीमद्भागवत)
मनुष्य के कल्याण के लिये ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग - इन तीनों उपायों ही है । इनके अतिरिक्त, मोक्ष प्राप्ति का और कोई उपाय नहीं है । शरणागति मार्ग में इन तीनों के तात्पर्य स्वतः आ जाते हैं । अतः मुमुक्षु का इस एक ही जन्म में कल्याण हो जाता है , यथा – 
भक्तिः परेषानुभवो विरक्तिरन्यत्र चैष त्रिक एककालः ।
प्रपद्ममानस्य यथाऽश्नतः स्युस्तुष्टिः पुष्टिः क्षदपायोऽनुघासम् ॥
इत्यच्युताध्रिं भजतोऽनुवृत्त्या भक्तिर्विरक्तिर्भगवत्प्रबोधः ।
भवन्ति वै भागवतस्य राजंस्ततः परां शान्तिमुपैति साक्षात् ॥
भगवान् के शरणागतों के हृदय में भगवान् की भक्ति , उनके परात्पर स्वरूप का अनुभवात्मक ज्ञान और अन्य वस्तुओं से वैराग्य ये ती तीनों एक ही समय में अर्थात् साथ - साथ उत्पन्न होते हैं । जिस प्रकार भोजन करने वाले को उसके प्रत्येक ग्रास अर्थात् कौर के साथ - साथ ही तुष्टि , पुष्टि और क्षुधा निवृत्ति तीनों हो जाती है , उसी प्रकार हे राजन् ! भगवान् श्री अच्युत के चरण कमल का निरन्तर भजन करते करते भक्त को भक्ति , विरक्ति अर्थात कर्मयोग का फल और भगवान् के स्वरूप की स्फूर्ति अर्थात् अपरोक्ष ज्ञान ये तीनों अवश्य प्राप्त होती है और फिर वह अर्थात् मुमुक्षु साक्षात् परम शान्ति का अनुभव करने लगता है यह कवि मुनीश्वर ने राजा जनक से कहा है ।

देव, ऋषि तथा पितृ – इन तीनों के मूल परमात्मा ही हैं । अतः उन्हीं की शरण होने से मुमुक्षु सभी से उऋण हो जाता है । यथा तरोर्मूलनिषेचनेन तृप्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखाः ।
प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां तथैव सर्वाहणमच्युतेज्या ॥ { श्रीमद्भागवत पुराण 4 / 31 / 14 }
अर्थात् जैसे जड़ के सींचने से वृक्ष के अंग एवं प्राण के तृप्त होने से इन्दियां सचेत होती है , वैसे ही श्रीहऱि का पूजन करने से सभी का पूजन हो जाता है , क्योंकि भगवान् ही सबके आत्मा हैं । अतः उन्हें आत्मा सर्म्पण कर तृप्त करने पर सबकी तृप्ति हो जाती है।

अतः हमें मोक्ष मार्गके साथ साथ विज्ञानमार्ग को भी अपनाना चाहिये । तथा पाश्चात्य जगतको भी मोक्ष मार्गके उपदेश करते रहना चाहिये । वेदके जो स्तुति तथा आशिष है, वह विज्ञानमूलक है । बृहद्देवता में इनका अर्थ करते हुये शौनक महर्षि ने कहा –
स्तुतिस्तु नाम्ना रूपेण कर्मणा बान्धवेन च । स्वर्गायुर्धनपुत्रादैर् अर्थैराशीस्तु कथ्यते । ...
स्तुवद्भिर्वा ब्रुवद्भिर्वा ऋषिभिस्तत्त्वदर्शिभिः । भवत्युभयमेवोक्तम् उभयं ह्यर्थतः समम् ।।
यहाँ नाम्ना रूपेण कर्मणा बान्धवेन से Classification and nomenclature, physical characteristics, chemical properties and interactive potential विवक्षित है । अतः वेद विज्ञानमूलक है ।


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