Friday, May 08, 2020

भोक्तात्माका स्वरूप निर्वचन।


भोक्तात्माका स्वरूप निर्वचन।

आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ॥ कठोपनिषद् १/३/४ ॥

इन्द्रिय एवं मन संयुक्त आत्मा को भोक्ता कहागया है । जो भोग करता है वह भोक्ता है । सुख-दुःख का साक्षात्कार भोग है । साक्षात्कार क्रिया है । सुख-दुःख शीतोष्ण जैसे मात्रास्पर्श है (गीता २/१४)। भौतिक सम्पत्ति हि मात्रा (म्+आ+त्+र्+आ - matter) है । मात्रा खण्ड है (discrete)। खण्ड भाव अखण्ड को सखण्ड वनाता है । उत्तरेषुगुणाः सन्ति सर्वसत्त्वेषु चोत्तराः – इस सिद्धान्त के अनुसार, उत्तर-उत्तर के महाभूतों में पूर्व-पूर्व के महाभूतों का गुण रहता है । शीतस्पर्श जल का गुण है । उसमें अग्नि, वायु आकाश के गुण आंशिक मात्रा में रहते हैं । उष्णस्पर्श अग्नि का गुण है । उसमें वायु तथा आकाश के गुण आंशिक मात्रा में रहते हैं । उसीप्रकार सुख-दुःख में भोग्य विषय का आंशिक सत्ता रहता है । तभी तो उसे गौण मान कर उपभोग कहते हैं । आत्मा नित्यः सर्वगतः स्थाणुः अचलोऽयं सनातनः (गीता २/२४) – सदा रहनेवाला, सबमें परिपूर्ण, आंशिकरूप से भी गति नहीं रहने वाला हैं । अपने स्थान को न त्यागने वाला, अनादि आत्मा के लिये मात्रास्पर्शयुक्त भोग कैसे सम्भब है । तो फिर भोक्तात्मा का स्वरूप क्या है ।

सर्वप्रथम शरीरके उपर ध्यान दिजिये । पञ्चमहाभूत, वाक्, मन, चक्षु, श्रोत्र – यह उत्पन्न होकर परष्पर स्पर्द्धा करनेलगे कि हम इसशरीरका विधारक है - वयमेतद्बाणमवष्टभ्य विधारयाम (प्रश्नोपनिषद् १/२/२) - एकत्र करके धारण करेंगे । तब प्राणने कहा (अपने प्रभावसे सिद्ध करदिया) कि अहमेवैतत्पञ्चधात्मानं प्रविभज्यैतद्बाणमवष्टभ्य विधारयामीति – धिषणा (सौर विज्ञान) प्राण ही अपने आपको भूतयुक्त कर मन, प्राण, वाक्, चक्षुः, श्रोत्र – इन पाञ्च भागोंमें विभक्तकर शरीरको उठाया हुआ है (तत्रैव-३)। ऐतरेयब्राह्मणम् भी कहती है कि सर्वे वै प्राणेनावष्टब्धम् – सबकुछ प्राणके द्वारा विधारण कियागया है । यह विधारकप्राण अनन्त प्रकारके होनेपर भी इनसबको दो भागमें विभक्त किया जा सकता हैं । वस्तुके स्वरूप को सुरक्षित रखनेवाला - वस्तुस्वरूप में परिणत आग्नेय सत्यप्राण को अन्तःप्राण (nucleons) कहते है । उसके वाहर रहनेवाला ऋतप्राण को बहिःप्राण कहते हैं, जो मातरिश्वा (electron sea) के नाम से भी जाना जाता है ।

शतपथब्राह्मणम् - ११/१/६/१७  के अनुसार यद्वै किञ्च प्राणि स प्रजापतिः – जो भि प्राणी है, अवयव-अवयवी-प्रवाह रूप प्रजासृष्टि  (सन्तानोत्पत्ति) के कारण वह प्रजापति कहलाते हैं । प्रजापति ईश्वर-जीव-शिपिविष्ट भेदसे तीनप्रकार का है । ईश्वरप्रजापति केलिए आधिदैविक शब्दका प्रयोग कियाजाता है, जो अक्षर का कार्य है । जीवप्रजापति केलिए आध्यात्मिक शब्दका प्रयोग कियाजाता है, जो अव्यय का कार्य है । शिपिविष्टप्रजापति केलिए आधिभौतिक शब्दका प्रयोग कियाजाता है, जो क्षर का कार्य है । इसलिए जिसे अध्यात्म में अहम् कहा जाता है, उसे अधिदैव में इदम् कहा जाता है । भोगमें भोगायतन (भोग करने का स्थान), भोग्यपदार्थ (वाह्य वस्तु), भोग्यसाधन (इन्द्रियाँ) और भोक्ता (चैतन्य आत्मा) – यह चार अपेक्षित है । इनमें से एक भी नहीं रहने से भोग नहीं होगा । यह शरीर भोगायतन है । बाह्य विषय भोग्यपदार्थ है । इन्द्रियाँ भोगसाधन है । जो कर्मफल भोगकरता है, वह शरीरस्थ वैश्वानर-तैजस-प्राज्ञरूप कर्मात्मा भोक्ता है । परन्तु जब यह स्थुलशरीर नष्ट हो जाता है, तब परलोक में सुख-दुःखका भोग कैसै सम्भव है।

इस प्रश्न का उत्तर है कि मृत्यु से सृष्टिकर्म में बाघा नहीं पहुँचता । मृत्यु एक जीवनचक्र का अवसान है । मृत्यु के उपरान्त एक नया चक्र का आरम्भ हो जाता है । कारण सृष्टिधारा व्याहत नहीं होती । एक तरङ्गके पश्चात अन्यएक तरङ्ग उठता है । मृत्युके उपरान्त एक आतिवाहिक शरीर जन्मलेता है, जो भोगायतन वनता है । पूर्वजन्मके वासनासंस्कारपुञ्ज उसमें भोग्यपदार्थ वनते हैं । इन्द्रियों के अधिष्ठाता प्रज्ञान चन्द्रमा (मन) भोगसाधन है । प्राण के आधारपर रहनेवाला विज्ञान सूर्य (बुद्धि) वैश्वानर-तैजस-प्राज्ञ (अहङ्कार) रूपमें परिणत होकर भोक्ता वनता है (प्रश्नोपनिषत् १/१/६-७) । अहंभावका आग्नेयअंश जो नित्यप्रति उत्पन्न नूतन भूतोंको सुरक्षित करता है, उसे वैश्वानर कहते हैं । जो वायव्यअंश नित्यप्रति गतिद्वारा नूतन वस्तु उत्पन्न करता है, उसे तैजस कहते हैं । इन्द्रका जो आदित्यअंश विषयजात वस्तुका अनुभव करता है, उसे प्राज्ञ कहते हैं । इन तीनोंमें अहंभाव (मैं पना) वनारहता हैं। अतः इन्हे अहङ्कार कहते हैं । जैसे एक अङ्कुर अथवा पुरुष जन्म होते ही उसका छाया स्वयमेव आ जाता है, उसीप्रकार आत्माके साथसाथ प्राण स्वयमेव आ जाता है । वह प्राण मनके द्वारा शरीरमें आता है (आत्मन एष प्राणो जायते। यथैषा पुरुषे छायैतस्मिन्नेतदाततं मनोकृतेनायात्यस्मिञ्छरीरे - प्रश्नोपनिषत् १/३/३)।  

यहाँ आत्मा तथा ब्रह्म का प्रकृत अर्थ समझना आवश्यक है । कुछ लोग एकमेवाद्वितीयम् कह कर दोनों को एक मानते हैं जो ठीक नहीं । जो एकम् कहने से समझा जा सकता था, उसे तीन शब्द से कहने के पीछे एक बडा रहस्य है । हम किसी वस्तु को अन्य वस्तु से भेद (अलग लक्षण) कर के जानते हैं । जैसे आम कहने से अन्य समस्त पदार्थों और फलों से इसका जो भेद है, उसे देखकर हम कहते हैं कि यह आम है । इसे विजातीय भेद कहते हैं । आम में भी लङ्गडा, सुन्दरी, चौसार, आदि भेद है । उसे सजातीय भेद कहते हैं । एक ही आम के छिलका, रस, गुठली आदि अलग भेद होते हैं । उसे स्वगत भेद कहते हैं । परम्ब्रह्म अथवा परमात्मा में कोई भेद नहीं होता । इसलिए विजातीय भेद निवारण के लिये एकम् कहा । सजातीय भेद निवारण के लिये एव कहा । स्वगत भेद निवारण के लिये अद्वितीयम् कहा । परन्तु यह जीवात्मा के लिये प्रयुक्त नहीं होता । उपनिषद जीवात्मा का ही विचार करता है ।

जो पृथक् से स्पष्ट जाना जाये, उसे निरुक्त कहते हैं । अन्यथा उसे अनिरुक्त कहा जाता है । जिस अवस्था में जगत् ब्रह्म से पृथक् नहीं जाना जाता, वह ब्रह्म की उन्मूग्ध अवस्था है । उस स्थिति में ब्रह्म अव्याकृत और निर्विकल्प कहा जाता है । अपरिणामी ब्रह्म से ही परिणामिनी सत्ता, चेतना आदि रूप व्यक्त होते हैं । यही एकोऽहं वहुस्याम श्रुति वाक्य का अर्थ है । नभ्य एवं सर्व भेद से अनिरुक्त द्विधा विभक्त है । केन्द्रशक्ति नभ्य है, जो अणिमा (क्षुद्रातिक्षुद्र) है । यही प्रतिष्ठा है । ऋग-यजुः-साम में से अन्तिम साम ही सर्व है, जो भुमा (सर्वव्यापी) है । उसके विषय में सब कुछ कहना सम्भव नहीं है, कारण वह अनन्त है । परन्तु अवयवशः (खण्ड खण्ड कर – by digitizing the analog), उसकी आपेक्षिक निरुक्ति की जा सकती है । उनके मध्य में जितने रूप हैं, वह केन्द्रशक्ति से ही उदित होते हैं । अत्यधिक अन्यथा भाव को विवर्त कहते हैं । केन्द्रशक्ति सदा एकरूप होने पर भी विवर्त (evolution) उत्पन्न करती है । यह अनिरुक्त होने पर भी अवतार अथवा विकासके कारण ज्ञेयहोता है । केन्द्रशक्तिका अपनेही शक्तिसे (विना किसी अन्य शक्तिसंयोगके) व्यक्तिकरण अवतार  (incarnation) है । उसका अन्य अनेक प्रकारके संसर्गसे (अन्य शक्ति संयोग से) व्यक्तिकरण विकास (transformation) है । अनिरुक्त से ही निरुक्त वनता है (असतः सदजायत - ऋक् १०/७२/२) । परन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान निरुक्त का प्रथम होता है । उससे अनिरुक्तका अनुमान किया जाता है ।

आत्मा (जीवात्मा) शब्द सापेक्ष है । जैसे पिता अथवा पुत्र कहसे से प्रश्न उठता है कि किसका पिता अथवा पुत्र, उसीप्रकार आत्मा कहने से प्रश्न उठता है कि किसका आत्मा । यदुक्थं सत् यत् साम सत् यद् ब्रह्म स्यात् स तस्य आत्मा - जो किसी का उक्थ-ब्रह्म-साम है, वह उसकी आत्मा है । उक्थ क्या है । यत उतिष्ठति तदुक्थम् – जिस आलम्बन से वस्तुस्वरूप उठता है – उत्पन्न होता है, उसे उस वस्तु का उक्थ कहते हैं । उपादानकारण ही उक्थ है । इसीलिए  यही वस्तुका प्रभव है । ऋग्भ्यो जातां सर्वशो मूर्त्तिमाहुः – इस तैत्तिरीयब्राह्मणम् (३/१२/९/१-२) वचन से समग्र पिण्ड ही ऋक् है, जो अणुओं के चयन द्वारा मूर्च्छित होने से मूर्त्ति कहलाते हैं ।

अवसान रूप साम ही परायण है अन्तिम रहने का स्थान है । वह उक्थ ही यावत् कार्यमें आलोमेभ्यः आनखाग्रेभ्यः सर्वत्र समान रहने से ऋचा समं मेने इस व्युत्पत्ति से साम कहताता है । साम महिमामण्डल है (सर्वं तेजः सामरूपं ह शश्वत् तैत्तिरीयब्राह्मणम् (३/१२/९/१-२) । हम वस्तु का महिमामण्डल से निर्गत विकिरण से ही वस्तु के रूप को देख पाते हैं ।

प्रतिष्ठा तत्त्वका नाम ही ब्रह्म है (सैवास्मै प्रतिष्ठाऽभवत् । तस्मादाहुः ब्रह्म अस्य सर्वस्य प्रतिष्ठा । प्रतिष्ठा हैषा यद् ब्रह्म । शतपथब्राह्मणम् ६/१/१/८)। बृंहति बर्द्धते (बृहिँ वृद्धौ॑, बृहँऽ वृद्धौ॑ वा) अर्थमें जिसका विस्तार सबसे बडा है, उसे ब्रह्म कहते हैं । अथवा शब्दायमान हो कर (बृहिँ शब्दे॑ च) तरङ्गन्याय सर्बत्र व्याप्त – सबको छन्दितकर रखनेवाला तत्त्वको ब्रह्म कहते हैं । अथवा ब्रह्म शब्द भृ (डुभृ॒ञ् धारणपोष॒णयोः॑) धातु से भी हो सकता है जिसका अर्थ धारण-पोषण करना । बिभर्त्ति इस व्युत्पत्ति से मिट्टि धट का ब्रह्म है । प्रतिष्ठातत्त्व के तीन भेद है । आत्मप्रतिष्ठा, लोकप्रतिष्ठा, विधृतिप्रतिष्ठा । किसी वस्तु (घट) यदि है, तो उसके नामसे हम जो तत्त्वको समझकर उसका अस्तित्वको मानते हैं, उस नामको उस वस्तुका आत्मप्रतिष्ठा कहते हैं । घट मिट्टिसे बना है – मिट्टिमें प्रतिष्ठित है । मिट्टिकी प्रतिष्ठा घटमें है । इसीसे उसको रूप प्राप्त हुआ है । यही रूप लोकप्रतिष्ठा है । घट पृथ्वीपर है । वह पार्थिवप्रतिष्ठा से विधृत है । विधृति कर्म है । यह कर्म ही विधृतिप्रतिष्ठा है ।

यही तीनों उक्थ-ब्रह्म-साम अथवा प्रभव-प्रतिष्ठा-परायण वस्तुका नाम-रूप-कर्म है । इसीलिए कहा गया है – त्रयं वा इदं नाम-रूप-कर्म । तेषां नाम्नां वागित्येतदेषामुक्थम् । अतो हि सर्वाणि नामान्युत्तिष्ठन्ति । एतदेतेषां साम एतद्धिसर्वेर्नामभिः समम् । एतदेषां ब्रह्म । एतद्धि सर्वाणि नामानि बिभर्त्ति .. (शतपथब्राह्मणम् १४/४/४/१)। जो न हो कर भी दिखाई देने का प्रतीति होता है, उसे अभूत् वा भाति निर्वचन से अभ्व कहा जाता है । नाम-रूप-कर्म त्रितय अभ्व है । यह तीनों माया बल है । वाक् सम्बन्ध बल नाम है । ज्योति निबद्ध मनसे गृहीत बल रूप है । प्राणसम्बन्ध बल कर्म है । इससे नाम-रूप-कर्म का मन-प्राण-वाक् से सम्बन्ध सिद्ध होता है । पूर्व में असत् होनेपर भी कारण में स्थित प्रतिष्ठा से जो त्रितय अभ्व का योग है, वही उसका भाव है । उन नाम-रूप-कर्म का वियोग ही अभाव है ।

वेदमें ब्रह्म को रस (रसो वै सः तैत्तिरीयोपनिषत् २/७) और उसकी परा शक्ति को बल कही गई है (नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो – मुण्डकोपनिषत् ३/२/४, बल्ँ सत्यादोजीयः - शतपथब्राह्मणम् १४/८/१५/१५)। यह दोनों अविनाभावी है – अलग नहीं रहते । विषय के प्रसंग में अनेक रूप से द्रवित होने के कारण चित्त का नाम रस है । रस की बल के प्रसंग से जो वहुरूपता दिखाई देती है, उसे भी रस कहते हैं । रस प्राप्त कर सब का आनन्द होता है । अतः ब्रह्म को आनन्द कहा जाता है । अमृत रस है । ब्रह्म अमृत है । इसलिए ब्रह्म को अमृत रस कहते हैं । रस को वेद में पवित्र, आभु, सत्, स्थित, विद्या, अमृत, पूर्ण तथा अकर्म आदि नाम से कहा गया है । रस बल नहीं है । बल के क्षय और उदय के समय बलाश्रय रस तटस्थ रहता है । इसलिये इन दोनों विशेष रूपों का अविनाभाव सम्बन्ध में तारतम्य आ जाता है । इसी से यह पृथक रूप से जाने जाते हैं । यही द्वैत का कारण है ।

जब एकतत्त्व किसी अन्यको सर्व दिशाओंसे दृढ अथवा शिथिल आवेष्टन (strong or weak confinement) करताहै, तो उस संबलन को बल (बलँ प्राण॑ने धान्यावरो॒धे च॑) कहते हैं । अवरोध आवरण है । जब शक्त्यात्मक बल रसको सर्व दिशाओंसे वेष्टन करलेता है, तो जैसे समुद्रजल से तरङ्गें उठते हैं और स्रोत सृष्टि होता है, उसीप्रकार अनन्तपर्यायें विवर्त्त (अत्यधिक अन्यथा भाव – जैसे उठना ओर लीन होना) वही स्थिति होता है । उस शक्त्यात्मक तत्त्व को वेद में रूप, बल, पाप्मा, तुच्छ, असत्, यत्, अविद्या, मृत्यु, शून्य, कर्म आदि नाम से कहा गया है ।

रस और बल दोनों एक ही शक्ति के अन्तर्निहित धर्म है । बलोपेत रस धर्मी है । यह दोनों धर्म अयुतसिद्ध है । जहाँ एक धर्म से अन्य घर्म न हो उसे निधर्मक कहते हैं । मौलिक धर्म में सत्तासिद्ध धर्म का निरोध माना है । न उसमें अनेक भातिसिद्ध (भासित होने वाला) धर्म ही उदय होते हैं । रस और बल दोनों निधर्मक है । रस एक एवं अखण्ड है । बल मूलरूप से अखण्ड होने पर भी सखण्ड अथवा खण्डाखण्ड हो सकता है । सुप्त हो तो बल, जागृत हो तो शक्ति अथवा प्राण, तथा उसका परिणाम को क्रिया कहते हैं । एक ही बल का यह त्रिविध परिणाम होते हैं । बल का कुर्बद् रूपता ही कर्म है । रस-बल, पवित्र-पाप्मा, स्थित-यत्, विद्या-अविद्या, अमृत-मृत्यु, कर्म-अकर्म, यह सब युग्म-मिथुन-द्वन्द एक ही मूल तत्त्व के उभयात्मक स्वरूप है । इसलिये प्रकृति को द्वन्दकर्त्ती कहा जाता है । प्रकृति-पुरुष का मिथुन भी यही है ।

एक अपरिमित (अपरिच्छिन्न) वस्तुका एक मित (परिच्छिन्न) वस्तुके साथ निरूढ (लक्षणा द्वारा अर्थप्रतिपादिक) मात्रामें सङ्क्रमण करना (एकत्र होना) संसर्ग (interaction) है । संसर्गज कर्म दो प्रकार के होते हैं १) कर्म में कर्म (interaction between forces) और २) अकर्म में (स्थिर वस्तु में) कर्म (interaction between a charged body with a charge neutral body) । बल से बल का चिति (confinement) से विश्वसञ्चार होता है । कर्म में कर्म का ५प्रकार के संसर्गभेद है – स्थनावरोध (exclusion principle), सामञ्जस्य (superposition), एकात्मक (complementarity principle), एकभाव्य (color charges of QCD) और भक्ति (translation of motion) । रस अकर्मक है । बल के साथ रस का तादात्म्य सम्बन्ध (coexistence) तो है, परन्तु उसमें सृष्टि सम्भव नहीं है । दोनों स्वतन्त्र और परष्पर असङ्ग है । जब बल सखण्ड हो कर – स्वयं परिच्छिन्न हो कर, अपने सम्बन्ध से रस को परिच्छिन्न कर देता है, तब समुद्रजल में तरङ्ग जैसे रस भी परिच्छिन्न प्रतीत होता है । उस परिच्छिन्न – मित (मापने योग्य) भाग (अकर्म) में जब अन्य बल का सम्बन्ध होता है, तब सृष्टि सम्भव होता है ।

अकर्म में कर्म के २ मुख्य भेद है १) स्वरूप सम्बन्ध (तादात्म्य, जिसमें स्वरूप विकृति न हो) और २) वृतित्व सम्बन्ध (जो शक्त्याश्रय से हो)। स्वरूप संसर्गी बल ही भाव (characteristic) है । वृत्तित्व संसर्गी बल ही कर्म (operation) है ।  इन सम्बन्धों का तीन तीन विभाग है । स्वरूप सम्बन्ध का विभाग १) विभुति, २) योग और ३) बन्ध । वृतित्व सम्बन्ध का विभाग १) आसक्ति, २) ऊदार, ३) समवाय । जहाँ दो तत्त्वोंके सम्बन्धसे एक अपने स्वरूपमें रहे तथा अन्य परतन्त्र होजाये, उसे विभूतिसम्बन्ध कहते हैं । रस और बलका सदा विभूतिसम्बन्ध रहता है । बलविशिष्ट रस के साथ बलान्तर के सम्बन्ध से यदि दोनों का मूलस्वरूप रहते हुये एक तृतीय तत्त्व वनता है, तो उसे योग कहते हैं । परन्तु यदि दोनों का मूलस्वरूप नाश होकर तृतीय तत्त्व वनता है, तो उसे बन्ध कहते हैं । विभूतिसम्बन्धसे अव्ययपुरुषका, योगसम्बन्धसे अक्षरपुरुषका और बन्धसम्बन्धसे क्षरपुरुषका प्रादुर्भाव होता है । इस प्रकार त्रिविधपुरुष हैं । उन्हीसे सवकुछ वना है पुरुषं एवेदं सर्वम् ।

पुरुषके साथ प्रकृतिका वृत्तित्व सम्बन्ध है । जहाँ आश्रित आश्रयका अपेक्षा न करके कर्मकरने केलिये स्वतन्त्र है, उसे वृत्तित्वसम्बन्ध कहते है । अथवा बलविशिष्ट पुरुषका बलान्तर संसर्गको वृत्तित्वसम्बन्ध कहते है । उसका ३ अवान्तर भेद है आसक्ति, उदार, समवाय । सङ्गवृत्ति आसक्ति । उसमें लोप, विकार अथवा निष्ठ होकर बल विश्राम करता है । यह क्षरका वृत्ति है अक्षरका नहीं । शुद्धकर्ममें शुद्धरसका सम्बन्ध को अव्ययाख्य परपुरुष कहते हैं । इनका विश्वके साथ सम्बन्ध उदारवृतित्व है । इनसे सामान्य और विशेषभाव वनता है । भावों में जो नानाविधता है, वह विशेष कहलाता है । एक भाव में अनन्त विशेष होते हैं । पदार्थों में भिन्नत्व नाम-रूप-कर्म कृत है । इसमें भिन्नत्व ही विशेष है । दो कर्मविशिष्ट अक्षरसे समवाय सम्बन्ध वनता है । वैशेषिक इन सवके विषयमें चर्चा करता है ।

अक्षर को भूतभृत्, सत्य, विज्ञान, अनन्त, अच्युत, कूटस्थ, अव्यक्त, ध्रुव, परावर, सेतु, अलक्ष तथा ईश्वर कहते हैं । त्रिषत्या हि देवाः (तैत्तिरीयब्राह्मणम् ३/२/३/८, षड्विंश ब्राह्मणम् १/१/९) के अनुसार देवों का तीन सत्यम् विभाग है । छान्दोग्योपनिषद् ६/३/४ के अनुसार – इमास्तिस्रो देवतास्त्रिवृत्त्रिवृदेकैका भवति – ये तीनों देवता एक एक करके प्रत्येके त्रिवृत् है । छान्दोग्योपनिषद् ८/३/५ में इसे स+ति+यम् का समष्टि कहा गया है, जो नाम-रूप-कर्म को व्यक्त करते हैं । यह सत्यम् वेदाःसत्यम्, सूत्रसत्यम् तथा नियतिःसत्यम् भेद से त्रिविध है । वेदाःसत्यम् का यज्ञ से सम्बन्ध है । शतपथब्राह्मणम् १४/६/७/६ के अनुसार – वायुर्वै गौतम तत् सूत्रम् । वायुना वै गौतम सूत्रेणायं च लोकः परश्च लोकः सर्वाणि च भूतानि संदृब्धानि भवन्ति । वायुना हि गौतम सूत्रेण संदृब्धानि । अक्षर का इन्द्रमय अग्निसोमभाग सूत्रसत्य है । इसी से ष्ट्रिंग थिओरी (string theory) का कल्पना कियागया है, जो अज्ञता के कारण भ्रमपूर्ण हो गया है ।

अन्तःप्रतिष्ठ हृदयम् रूप से सवका नियमन करने वाला अन्तर्यामी ही नियतिःसत्यम् है । इसीलिए शतपथब्राह्मणम् १४/८/४/१ में कहा गया है कि – एष प्रजापतिर्यद् हृदयम् । एतद् ब्रह्म । एतत् सर्वम् । तदेतत्त्र्यक्षरं हृदयमिति । हृ इत्येकमक्षरम् । द इत्येकमक्षरम् । यमित्येकमक्षरम् । तद्वै तदेतदेव तदास सत्यमेव । हरणार्थक हृ शब्द (हृ॒ञ् हर॑णे), खण्डन अथवा विसर्गात्मक द शब्द (दो॒ अव॒खण्ड॑ने), तथा यम् एकाक्षर नियमन भाव से नपुंसकलिङ्गान्त हृदयम् शब्द ग्रहण-त्याग-नियमन किम्बा आगति-गति-स्थिति भाव का द्योतक है । पुरुषसूक्त का प्रजापतिश्चरति गर्भेरन्तरजायमान बहुधा विजायते के अनुसार यही अन्तर्यामी बनकर आत्मा-प्राण-पशु तीन विभागसे समस्त प्रजाका निर्माण कररहा है ।

ब्रह्म स्थिर है । देव (दिवुँ क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिग॒तिषु॑) गतिमान है – अस्थिर है । अतः सृष्टि के मूलभूत स्थिर (जो सर्वत्र अपने मूल रूप से व्याप्त रहते हैं) स्वयम्भू-परमेष्ठी-सूर्य-चन्द्रमा-पृथिवी को ब्रह्मसत्य कहते हैं । चान्द्र मन तथा शरीराधार पृथ्वी के मध्य में स्थित वैश्वानर-तैजस-प्राज्ञ गतिशील जैव देवसत्य है । इनकी समष्टि ही अध्यात्म में जीवात्मा है । ब्रह्मसत्य ही देवसत्य का अधिष्ठान है ।  विना ब्रह्मसत्य के देवसत्य प्रतिष्ठत नहीं हो सकता। यही अभिन्न सत्य ही भोक्तात्मा है ।

इसीका स्वरूप का निर्णय करते हुये श्रुति कहती है कि -
अग्निर्मूर्धा चक्षुषी चन्द्रसूर्यौ दिशः श्रोत्रे वाग्विवृताश्च वेदाः।
वायुः प्राणो हृदयं विश्वमस्य पद्भ्यां पृथिवी ह्येष सर्वभूतान्तरात्मा ॥ मुण्डकोपनिषद् – २//४॥

वैदिक विज्ञान में यज्ञ (य॒जँ॑ देवपूजासङ्गतिकरणदा॒नेषु॑) का अर्थ सङ्गतिकरण (chemistry) है । किसी भी यज्ञ (in any chemical reaction) में अग्नि का वर्गीकरण (transition states) किया जाता है । आग्नेय पिण्ड का दो मुख्य भाग है । एक तो केन्द्रस्थ चित्यपिण्ड (nucleus) है, जो साकार भूत (determines nature of atom) है । दुसरा चितेनिधेय (electron shells) है, जो निराकार देव है । जहाँ तक चितेनिधेय अग्नि का व्याप्ति है, उसे वषट्कार मण्डल (electronic configuration) कहा जाता है । इसमें ३३ विभाग (कोटि) है, जिसे अहर्गण कहते हैं । इन में से १ से २१ अहर्गण पर्यन्त अग्नि तथा २२  से ३३ अहर्गण पर्यन्त सोम है । वास्तव में अग्नि १७ वें अहर्गण पर्यन्त रहता है, जिसे आहवनीय अग्नि कहते हैं । परन्तु सोमाहुति से यह अग्नि २१ अहर्गण पर्यन्त चला जाता है । इन २१ में से ९ पर्यन्त पार्थिव गार्हपत्य अग्नि है । यह विष्णुका प्रथम विक्रम है । विशति प्रविशति अर्थमें सव में प्रविष्ट तत्व को विष्णु कहाजाता है । १५ पर्यन्त आन्तरिक्ष यमाग्नि (वायु) है । विष्णुका द्वितीय विक्रम है । २१ पर्यन्त द्वौ लोकस्थ आदित्याग्नि है । यह विष्णुका तृतीय विक्रम है । इसिलिये विष्णुको त्रिविक्रम कहागया है । यह सवसे छोटा होनेसे वामन कहलाता है । रोदसी त्रिलोकी का व्याप्ति यहीं तक है ।

कभी कभी सोमाहुति के प्रावल्य से वह अग्नि २२ वाँ स्थान तक चला जाता है । इसीलिए पार्थिव साम को रथन्तर साम कहते हैं । २१ वाँ सूर्य स्थान है ।  २१ से २७ वाँ अहर्गण पर्यन्त भास्वर सोम है । उसके उपर ३३ वाँ अहर्गण पर्यन्त दिक् सोम है । १७ से २५ वें अहर्गण मध्य में (१८ से २४ तक) को सप्त देवस्वर्ग कहा गया है । १८ वाँ ऋतधामा स्वर्ग है । १९ वाँ अपरोदक वायव्य स्वर्ग है । २० वाँ अपराजित ऐन्द्र स्वर्ग है । २१ वाँ अपराजित ऐन्द्र-ऐन्द्राग्नि नाक स्वर्ग है । २२ वाँ अधिधौ वारुण स्वर्ग है । २३ वाँ प्रधौ मुच्यु स्वर्ग है । २४ वाँ रोचन ब्राह्म स्वर्ग है । २५ वाँ उत्तम अथवा प्रत्य नाक स्वर्ग है । १७ वाँ नाचिकेत स्वर्ग ब्रह्मविष्टप है । २१ वाँ विष्णुविष्टप है । २५ वाँ इन्द्रविष्टप है । इन तीनों का समष्टि को त्रिणाचिकेत कहा जाता है । श्रौतसूत्रों तथा कठोपनिषदमें इसका विवेचन किया गया है ।

सोम पर चित् का प्रतिबिम्ब पडता है, जिससे वह ज्ञानमय हो जाता है (जैसे प्रतिविम्बित सौर रश्मि से सोममय पिण्ड चन्द्रमा प्रकाशमय हो जाता है) । अतः आदित्याग्नि का नाम सर्वज्ञ है । यह मस्तक स्थानीय और सहस्रशीर्ष है । १५ वाँ अहर्गण पर्यन्त आन्तरिक्ष यमाग्नि क्रियामय है । यहाँ ज्ञानमात्रा अल्प परिमाण में है । प्राणमय (क्रियामय - radiative) तथा मध्यपतित (nucleic) होने से इसे हिरण्यगर्भ कहा जाता है । यह सहस्राक्ष है । उसके नीचे पार्थिव अग्नि है, जहाँ ज्ञानमात्रा अनुल्वण है । यह पद स्थानीय तथा  अपानमय होने से वैश्वानर कहलाता है । यह सहस्रपात् है । वैश्वानर-हिरण्यगर्भ-सर्वज्ञ का समष्टि अधिदैव में ईश्वरीय देवसत्य है । यह भी स्वयम्भू-परमेष्ठी-सूर्य-चन्द्रमा-पृथिवी का समष्टि ब्रह्मसत्य पर प्रतिष्ठित है । इस में वैश्वानर-हिरण्यगर्भ-सर्वज्ञ (९-१५-२१) भेद से उक्थ अग्नि के अर्क किरणें निकल कर चारों दिशाओं में विच्छुरित होता है । इन असंख्य किरणों को गौ सहस्र कहते हैं ।

इनमें से प्रथम साहस्री प्राणप्रधान सर्वज्ञ है । इसका प्रतिष्ठा स्थान २१ अहर्गण है । यह देवसत्य का मूर्धास्थान है । यही आदित्याग्नि है । शतपथब्राह्मणम् १०/६/१/९ में कहा गया है कि – मूर्द्धा त्वाऽएष वैश्वानरस्य (यत् द्यौः) । अतः अग्निर्मूर्धा कहा गया है । विज्ञान सूर्य (बुद्धि) सुषुप्ति अवस्था में भी जाग्रत रह कर सवका द्रष्टा होने से चक्षुस्थानीय है (प्राणाग्नय एवैतस्मिन्पुरे जाग्रति – प्रश्नोपनिषद् ४/३) । उसीके अपर दिशा में (२२  से ३३ अहर्गण पर्यन्त) सोम है । यह दोनों चक्षुस्थानीय है । इन से ही – इन अग्नि-सोम से ही - जगत् निर्माण होता है । वह विराट् पुरुष इन्हि साधनों के द्वारा द्रष्टा वना हुआ है । अतः चक्षुषी चन्द्रसूर्यौ कहा गया है ।

उस विराट् पुरुष के श्रोत्र से दिशायें उत्पन्न हुइ (पुरुषसूक्तम्) । सुषिरत्व (शु॒षँ शोष॑णे – अथवा षु॒ प्रसवैश्व॒र्ययोः॑ + षो॒ अन्तक॒र्मणि॑ – सुष्ठुं स्यतीति) में साम्य होने से श्रोत्र से दिशायें उत्पन्न हुइ कहा जाता है । ३३ वाँ अहर्गण पर्यन्त दिक् सोम है । अतः दिशः श्रोत्रेकहा गया है । मन-प्राण-वाक् भेद में सूर्यात्मक आदित्य प्रकृति के क्रम से वाक् स्थानीय है । वाक्यपदीयकार भर्तृहरी केमत से न सोSस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमात्त्ते । अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्वं शब्देन भासते । संसार का कोई भी ज्ञान विना शब्द के प्रकाशित नहीं हो सकता । अतः कणाद सूत्रम् ६/१/१ में कहा गया है बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे। इसीलिए कहा गया है कि – वाग्विवृताश्च वेदाः

ऐतरेयब्राह्मणम् ६/४ तथा ७/१० में कहा गया है कि वायुर्हि प्राणः । इसीलिए कहा गया है कि – “वायुः प्राणो। ग्रहण-त्याग-नियमन किम्बा आगति-गति-स्थिति भाव का द्योतक हृदयम् से ही विश्वनिर्माण होता है । इसीलिए कहा गया है कि – “हृदयं विश्वमस्य। १ से ९ अहर्गण पर्यन्त पार्थिव गार्हपत्य अग्नि है, जो पदस्थानीय है । इसीलिए कहा गया है कि – “पद्भ्यां भूमिः। वही सबके भीतर रह कर सबका सञ्चालन करता है । इसलिए कहा गया है कि – “ह्येष सर्वभूतान्तरात्मा


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