सम्वत्सरमूला-अग्नीषोमविद्या
मोतीलाल शास्त्री
वाचं
देवा उपजीवन्ति विश्वे, वाचं
गन्धर्वाः, पशवो
मनुष्याः।
वाचीमां
विश्वा भुवनान्यर्पिता सा नो हवं जुषतामिन्द्रपत्नी।।1।।
वागक्षरं
प्रथमजा ऋतस्य वेदानां माता, अमृतस्य नाभिः।
सा
नो जुषाणोपयज्ञमागादवन्ती देवी सुहवा मेऽस्तु।।2।।
प्राक्कम्र्मोदयतो
हि यस्य मिथिलादेशे शरीरोदयः।
श्रीविश्वेशदयोदयाच्च
समभूत काश्यां सुविद्योदयः।।
राज्ञा
प्रीत्युदयादभूज्जयपुरे सम्पत्तिभाग्योदयः।
सिद्धस्तन्मधुसूदनाय
गुरवे नित्यं प्रणामोदयः।।3।।
ओष्ठापिधाना
न कुली दन्तैः परिवृता पविः।
सर्वेस्यै
वाच ईशाना चारुमामिह वादयेत्।।4।।
तद्दिव्यमव्ययं
धाम सारस्वतमुपास्महे।
यत्प्रसादात्प्रलीयन्ते
मोहान्धतमसच्छटाः।।5।।
भारत
की मूलनिधिरूप वेदशास्त्र के ‘सृष्टिविज्ञान’ को लक्ष्य बनाकर आज जो कुछ निवेदन किया
जा रहा है, वह
सम्भवतः अनेक शताब्दियों के अनन्तर साकाररूप धारण करने वाले वैसे सुखःस्वप्न हैं,
जिनकी
साकाररूपता के लिए भारतीय आस्तिक प्रजा अनेक शताब्दियों से आशा-प्रतीक्षा कर रही
थी। कविकुलगुरु कालिदास के युग में, जो कि सत्तानुबन्ध से भोज का युग भी माना जा
सकता है वेदाभ्यासपरायण भारतीय के लिए एक बहुत बड़ा सम्मानित पद नियत था, और वह पद था- ‘वेदाभ्यासजड़मति’। भोजकालीन साहित्यिक युग में
शिखा-सूत्रधारी वेद-पारायणपाठी को इसी सम्मानित पद से आमन्त्रित किया जाता था। और
सम्भवतः आज के इस सर्वतन्त्रस्वतन्त्रयुग में भी वेदशास्त्र के सम्बन्ध में
सर्वसाधारण की कुछ ऐसी ही मान्यताएँ हैं।
‘गणानां
त्वा गणपतिं हवामहे’ - ‘नमस्ते
रुद्र मन्यव उतोत इषवे नमः’-‘अग्निमीले पुरोहितम्’ इत्यादि वेदमन्त्रों का
पद-घन-जटा-उदात्तादि स्वर-सन्घानपूर्वक पारायण करते रहना, पारलौकिक अदृष्ट फल-प्राप्ति-कामना से
इन मन्त्रों के माध्यम से ग्रहशान्ति-स्वस्त्ययन-आदि कर्म सम्पादित कर लेना,
बहुत अधिक हुआ,
तो लोकोत्तर
किसी अचिन्त्य आत्मब्रह्म की कल्पना कर तदर्थ आत्मचिन्तन नाम की एक विशेष अज्ञात
प्रक्रिया में आत्मविभोर बने रहना, और यों अपनी आस्था-श्रद्धा के माध्यम से
वेदशास्त्र के प्रति श्रद्धांजलियाँ समर्पित करते रहना ही भारतीय मनुष्य का
वेदशास्त्र के प्रति अनन्य कत्र्तव्य समाप्त है। कब किस युग से आरम्भ होकर अन्धयुग
का उपक्रम हुआ? इसका
कोई ऐतिहासिक मापदण्ड नहीं है। यदि है भी, तो उसका इसलिए कोई महत्त्व नहीं है कि, प्रतिक्षण परिवर्तनशील मन-शरीर-भावों
से अनुप्राणित भौतिक इतिहास को ऋषिप्रज्ञा ने कभी कोई भी महत्त्व नहीं दिया।
भारतीय चिरन्तन प्रज्ञा पर वर्तमानयुग के पुरातत्ववेत्ताओं तथा इतिहासमर्मज्ञों के
इस अभियोग कि ‘इन
भारतीयों का कोई मौलिक व्यवस्थित इतिहास रहा ही नहीं’ भारतीय मनुष्य अभिनन्दन ही करेगा
क्योंकि मन और शरीर के इतिहास को वह इतिहास ही नहीं मानता। अपितु आत्म-समन्वित
बुद्धियुक्त सांस्कृतिक इतिहास ही उसकी दृष्टि में उपयोगी इतिहास रहा है, जिन एवंविध सांस्कृतिक
आत्मबुद्धिनिबन्धन चिरन्तन इतिहासों के सन्देश-वाहक निगम-आगम-पुराण-स्मृति आदि
ग्रन्थ सदा से ही भारतीय मनुष्य के लिए उपास्य रहे हैं, इस सांस्कृतिक इतिहास के मूलभूत
वेदशास्त्र से सम्बन्ध रखने वाले ‘अग्नीषोमात्मकं जगत्’ इस सृष्टीतिहास के सम्बन्ध में ही आज
हमें भारत के महामहिम राष्ट्रपति के सम्मुख दो शब्द निवेदन करने हैं।
सम्वत्सरयज्ञ
से सम्बन्ध रखने वाले अग्नि और सोम के सम्बन्ध में कुछ निवेदन करना है। ‘अग्नि’ से सम्बन्ध रखने वाली उत्तेजनापूर्ण
रौद्री घटनाओं का विश्लेषण ही हमारा उद्देश्य नहीं है। अपितु घोर-आग्निरस-अग्नि को
शिव-शान्त-भाव में परिणत रखने वाले सोम के सम्बन्ध से ही, इस सम्बन्ध से रुद्राग्नि को सौम्याग्नि
बनाते हुए ही अग्नीषोमविद्या की रूपरेखा उपस्थित की जाएगी। इस उपस्थिति से पूर्व
अग्नि-सोम के मूलाधारभूत ‘वेद’ के सम्बन्ध में एक वैसी नवीन धारणा व्यक्त की
जायगी, जिसे
सुनकर यहाँ उपस्थित सभी आस्तिक बन्धु सहसा यह कल्पना करने लग पड़ेंगे कि ‘अरे! वेद के नाम से आज हम ये कैसी
भ्रान्त धारणाएँ सुनने आ बैठे।’
वेदशास्त्र
के सम्बन्ध में भारतीय आस्तिक प्रजा की ऐसी धारणा है कि ऋक्-यजुः-साम-अथर्व-भेद से
मन्त्रात्मक संहितावेद चार भागों में विभक्त है। एवं प्रत्येक वेद क्रमशः 21-101-1000-9-इन अवान्तर शाखाओं में विभक्त है,
जिनके संकलन से
चारों वेदों के शाखाग्रन्थों की संख्या 1131 विश्रान्त है। प्रत्येक शाखा का एक-एक
ब्राह्मणग्रन्थ, एक-एक
आरण्यकग्रन्थ, एवं
एक-एक उपनिषद्ग्रन्थ और है। ब्राह्मणग्रन्थ-जिसे कि विधिग्रन्थ भी कहा गया
है-आरण्यकग्रन्थ तथा उपनिषद्ग्रन्थ की समष्टि ही सनातनसम्प्रदाय में ‘ब्राह्मणवेद’ कहलाया है। ब्राह्मणवेद के
शाखाग्रन्थों का यदि संकलन किया जाता है तो 3393 ग्रन्थ हो जाते हैं। इनमें 1131 संहिताग्रन्थों को मिला देने से
मन्त्रब्राह्मणात्मक वेदशास्त्र के कुल 4524 वेदग्रन्थ हो जाते हैं, जिनका- ‘मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधोयम्’
इत्यादि आर्षवचन
से संग्रह हुआ है।
उक्त
आस्था के सर्वथा विपरीत आज हम यह निवेदन करने का दुस्साहस कर रहे हैं कि, ‘कदापि उक्त शब्दात्मक वेदग्रन्थों का
नाम वेद नहीं है’, आस्था
सब की इस सम्बन्ध में यही चली आ रही है कि, ‘अग्निमीले पुरोहितम्’ इत्यादि वर्णाक्षरपदवाक्य
मन्त्रसमष्टिरूप शब्दात्मक वेदशास्त्र ही ‘वेद’ है, एवं यह शब्दात्मक वेदशास्त्र किसी भी मानवविशेष
की प्रज्ञात्मिका रचना से कोई भी सम्बन्ध न रखता हुआ विशुद्ध ईश्वरीय शास्त्र है,
अपौरुषेय
शास्त्र है, नित्यकूटस्थ
शास्त्र है। ईश्वर की वाणीरूप शब्दात्मक वेदशास्त्र की अपौरुषेयता का भी कुछ रहस्य
है, जिसका
शब्दार्थ के तादात्म्य-सम्बन्धात्मक औत्पत्तिक सम्बन्ध पर विश्राम माना गया है एवं
इस शब्दनित्यता की दृष्टि से वेदशास्त्र की अपौरुषेयता को भी सुरक्षित रखा जा सकता
है, रखा
गया है। तथापि तत्वतः ‘वेद’
शब्दार्थ की
वास्तविक पय्र्यवसान भूमि तो ‘मौलिकतत्त्व’ ही माना जाएगा, जिस तत्व की स्वरूपव्याख्या करने के
कारण ‘ताच्छव्य’
न्याय से
शब्दात्मक ग्रन्थ भी आगे जाकर ‘वेद’ नाम से प्रसिद्ध हो गये हैं। उसी प्रकार जैसे
कि विद्यतत्व का प्रतिपादक ग्रन्थ लोक में ‘विद्यग्रन्थ’ कहलाने लग पड़ा है। विद्यद्ग्रन्थ
तत्वप्रतिपादक पुस्तक है, स्वयं विद्यत् नहीं। एवमेव वेदग्रन्थ वेदतत्त्व
की पुस्तक है, स्वयं
वेदतत्त्व नहीं, जिस
इत्थंभूत तात्विकवेद की ओर विगत अनेक शताब्दियों से भारतीय प्रज्ञा का ध्यान गया
ही नहीं। अतएव वैदिक तत्ववाद के समन्वय में, वेदार्थसमन्वय में अनेक प्रकार की
भ्रान्तियाँ उत्पन्न हो पड़ीं। वेदतत्व के माध्यम से सर्वप्रथम इसी भ्रान्ति का
निराकरण अभीष्ट है। तदनन्तर ही वेदात्मक सम्वत्सरयज्ञ से सम्बन्ध रखने वाली
अग्नीषोमविद्या का दिग्दर्शन कराया जाएगा।
क्या
तात्पय्र्य है तत्त्वात्मक वेद का ? प्रश्न के सम्बन्ध में हमें यह समाधान करना
पड़ेगा कि ऋषिप्रज्ञा की एक यह विशिष्ट शैली, किंवा चिरन्तन पद्धति रही है कि ‘जिस तत्व को समझाने के लिए ऋषि ने जो
शब्द नियत किया है, उस
शब्द में ही तद्वाच्य तत्व की मौलिक स्वरूप व्याख्या ज्यों की त्यों निहित कर दी
गयी है।’ अतएव
वेदार्थपरिशीलन के लिए किसी स्वतन्त्र व्याख्या का अन्वेषण करना सर्वथा व्यर्थ
हैं। ‘वेद
क्या है ?’ प्रश्न
का समाधान स्वयं ‘वेद’
शब्द के ही गर्भ
में अन्तर्निगूढ़ है, जैसा
कि आगे जाकर स्पष्ट होने वाला है। प्रकृत में तथाकथित शैली के स्पष्टीकरण के लिए
उदाहरणरूप से ‘हृदयम्’
शब्द ही आप के
सम्मुख रक्खा जा रहा है। यह शब्द सभी सहृदयों के लिए सुपरिचित है। शब्द ‘हृदय’ नहीं है, अपितु ‘हृदयम्’ है, अर्थात् नपुंसकलिंगान्त है। इस शब्द
में ‘हृ’
इत्येकमक्षरम्,
‘द’ इत्येकमक्षरम्, एवं ‘यम्’ इत्येकमक्षरम्, इस रूप से तीन अक्षर हैं। वर्ण यद्यपि
अनेक हैं इस शब्द में। किन्तु ‘स्वरोऽक्षरम्। सहाद्यैव्यंजनैः’ इत्यादि प्रातिशाख्य-सिद्धान्तानुसार
अक्षरात्मक स्वर तीन हीं हैं। व्याकरण के सुप्रसिद्ध ‘हृ´् हरणे’ धातु से लिया गया ‘हृ’ नामक प्रथम अक्षर। ‘दो अवखण्डने’ धातु से लिया गया ‘द’ नामक द्वितीय अक्षर। एवं ‘यम्’ नामक तृतीय अक्षर बना दोनों का नियामक,
किंवा नियन्ता।
तात्पय्र्य तीनों का क्रमशः हुआ आहरण-खण्डन एवं नियमन। ‘हृ’ इत्याहरणभाव, आदानभाव, संग्रहभावः। ‘द’ इति खण्डनभावः, विसर्गभाव, त्यागभाव। ‘यम्’ इति उभयो संयमनम्, नियमनम्। तात्पय्र्य-जो शक्ति वस्तु का
संग्रह करती है, लेती
रहती है, उसका
नाम हुआ ‘हृ’। जो शक्ति आये हुए पदार्थों का
विसर्जन करती रहती हैं, फेंकती
रहती है, उसका
नाम हुआ ‘द’। एवं जिस नियामक-तीसरी शक्ति के आधार
पर यह आदान और विसर्ग-क्रिया प्रक्रान्त रहती है, दोनों की नियामिका शक्ति-प्रतिष्ठा
शक्ति का नाम हुआ ‘यम्’,
तीनों शक्तियों
की समुच्चितावस्था का ही नाम हुआ- ‘हृदयम्’।
विसर्गात्मिका
शक्ति के लिए वेद में पारिभाषिक शब्द नियत हुआ ‘प्राणन’ एवं आहरणशक्ति के लिए शब्द नियत हुआ ‘अपानन’। ‘जाना’ प्राणन है, आना अपानन है। केन्द्र से परिधि की ओर
जाना प्राणन है, यही
विसर्ग है। परिधि से केन्द्र की ओर आना अपानन है, यही आदान है। पीछे हटना अपानन है,
आगे बढ़ना प्राणन
है, दोनों
का जिस मूलबिन्दु पर नियमन है, वही मध्यस्थ ‘व्यानन’ है। श्रुति कहती है-
न
प्राणेन नापानेन मत्र्यो जीवति कश्चन ।।
इतरेण
तु जीवन्ति यस्मिन्नेताषुपाश्रितौ ।।1।।
प्राणनरूप
श्वास एवं अपाननरूप प्रश्वास से ही मरणधम्र्मा प्राणी जीवित रहते हैं, ऐसी सर्वसाधारण की मान्यता है। इसी
आधार पर ‘जब
तक साँस तब तक आस’ यह
किंवदन्ती प्रचलित हुई है। किन्तु श्रुति इस लोकधारणा के सर्वथा विपरीत हमें यह
बतला रही है कि न तो मत्र्य प्राणी प्राण (श्वास) से जीवित रहता है, न अपान (प्रश्वास) से जीवित रहता।
अपितु वे तो उस किसी तीसरे ही (व्यान) तत्व से जीवित रहते हैं, जिस (व्यान) के आधार पर प्राण और अपान
स्वरूप से प्रतिष्ठित रहते हैं शिरोऽन्त स्थानात्मक शिखान्त स्थान से अनुप्राणित
ब्रह्मरन्ध्र स्थान से प्रविष्ठ होने वाला सौर इन्द्रप्राण अध्यात्म में
प्रतिष्ठित रहता है। यह हृदयस्थ व्यान पय्र्यन्त पहुँच कर यहाँ से प्रत्याहित होकर
पुनः उसी मार्ग से परावर्तित हो जाता है। आगमनदशा में यही ‘प्राण’ है, गमनदशा में यही ‘उदान’ है। एवमेव ब्रह्मग्रन्थिद्वार से
प्रविष्ट होने वाला पार्थिव आग्नेय प्राण आगमनदशा में ‘समान’ है, निर्गमन दशा में ‘अपान’ है। हृदयस्थ व्यान से प्रत्याहित होकर
ही यह पार्थिवप्राण भी सौरप्राणवत् दो अवस्थाओं में परिणत हो रहा है। यों प्राण और
अपान के प्राणोदान, समानापान
दो दो विवत्र्त हो जाते हैं। यह गमनागमन मध्यस्थ व्यानप्राण पर ही अवलम्बित है।
द्वितीय मन्त्र ने इसी की स्वरूपव्याख्या करते हुए कहा है कि हृदयस्थ व्यान ही
प्राण को उदान रूप से ऊपर ले जाता है, अपान को अपान रूप से नीचे फैंकता है। मध्यस्थ
इस वामनरूप यज्ञिय वैष्णव व्यान प्राण को आधार बनाकर ही पार्थिव अपान (आग्नेय)
देवता, एव
सौर प्राण (ऐन्द्र) देवता स्वस्वरूप से प्रतिष्ठित हैं।
ऊध्र्वं
प्राणमुन्नयति, अपानं
प्रत्यगस्यति ।।
मध्ये
वामनमासीनं सर्वे देवा उपासते ।।2।।
-कठोपनिषत्
5।5,3
प्राण-अपान-व्यान,
तीनों शब्द
सुप्रसिद्ध हैं। प्राण ‘द’
है, अपान ‘हृ’ है, व्यान ‘यम्’ है। इस प्राणत्रयी की समष्टि ही ‘हृदयम्’ है। सौरजगत् को लक्ष्य बनाएँ। सम्पूर्ण
प्रकाशमण्डल सौररश्मियों का समूहमात्र है, जो सहस्रधा महिमानः सहस्रभावापन्ना रश्मियाँ
सूर्यकेन्द्र में आबद्ध हैं, नियन्त्रित हैं। नियन्ता ही व्यान है, जिससे नियन्त्रित सौररश्मियाँ
प्राणात्-अपानात्-रूप से गतिशीला बनी हुईं हैं। प्रत्येक रश्मि पीछे हटती हुई
अग्रगामिनी है। यही सर्पणाप्रक्रिया है, यही प्राणदपानलक्षण विसर्गादान व्यापार है। धूप
और छाया के मध्य में एक रेखा खींच दीजिए। आप देखेंगे कि रश्म्यवच्छिन्न प्रकाश
पीछे हटता हुआ ही आगे बढ़ रहा है। पीछे हटना ही अपानन है, आगे बढ़ना ही प्राणन है। जो पीछे नहीं
हट सकता, वह
कदापि अग्रगामी नहीं बन सकता। वर्तमानरूप मध्यस्थ व्यान केन्द्र पर प्रतिष्ठित
मानव भूतरूप अपानन के इतिहास के आधार पर ही भविष्यद्रूप प्राणन के इतिहास-सर्जन
में सफलता प्राप्त करता है। जो भूत को विस्मृत कर देता है, उसका भविष्यत् भी अन्धकार पूर्ण है,
एवं उभयमध्यस्थ
वर्तमान भी अव्यवस्थित है। विशाल प्रांगण (मैदान) में अनुधावन करने वाले मल्ल को
पहिले जंघाप्रकोष्ठ का ताड़न करते हुए (खम ठोकते हुए) पीछे ही हटना पड़ता है,
तभी वह
अग्रानुधावन में विजयलाभ करता है। वाष्पशकटी (ट्रेन) के इंजिन का अग्रस्थ धुर पीछे
हटता हुआ ही तेा अग्रगामी बनता है। सर्वत्र गतितत्व इस विसर्गादानात्मक
प्राणदपानद् भाव से ही नित्य समन्वित है। इसी रहस्य को लक्ष्य में रखते हुए ऋषि ने
कहा है-
अयंगौः
पृश्निरक्रमीदसदन् मातरम्पुरः ।।
पितरंच
प्रयन्त्स्वः ।।1।।
अन्तश्चरति
रोचनास्य प्राणदपानती ।।
व्यख्यन्महिषो
दिवम् ।।2।।
त्रिंशद्धाम
विराजति वाक्पतंगाय धीयते ।।
प्रति
वस्तोरह द्युभिः ।।3।।
- ऋक्संहिता
10।189।1,2,3
एति
च प्रेति च लक्षणा सुप्रसिद्धा ‘गायत्रीविद्या’ के द्वारा भी इसी आदान विसर्गात्मिका
क्रिया का स्वरूप विश्लेषित हुआ है। पार्थिव आग्नेय प्राणात्मक अन्नादधम्र्मा
देवताओं ने यह अनुभव किया कि वे अन्नसोम की आहुति के बिना अपने स्वस्वरूप से
प्रतिष्ठित नहीं रह सकते, जीवित नहीं रह सकते। सोम तथा पार्थिव आग्नेय
देवताओं से अत्यन्त विदूर तीसरे द्युलोक में, जो कि तृतीय लोक सूर्य से भी ऊपर ‘परमेष्ठी’ नाम से प्रसिद्ध है। ‘तृतीयस्यां वै इतो दिवि सोम आसीत्’
(शत. 3।2।4।1।) इत्यादि के अनुसार पारमेष्ठ्य तृतीय
लोक में वहाँ के प्रचण्डरूप से धोधूयमान सर्पणशील वायु के द्वारा तथा आप्यप्राणरूप
गन्धर्वों के द्वारा सुगुप्त था। उसे ही भूलोक पर लाने की इच्छा देवताओं ने की।
चार पैर वाली जगती ने कहा, मैं सोम का अपहरण करूँगी। जगती गयी केवल प्राणन
ही करती हुई। इसी निर्बलता से अपने तीन पैर सोमरक्षक गन्धर्वों से कटवा कर एक पैर
से जगती निराश बनती हुई लौट आयी। अनन्तर चार पैर वाली त्रिष्टुप् गयी। प्राणन के
साथ इसने अपानन तो किया, किन्तु अन्तरिक्षाकर्षण से अपानन पूर्णरूप से
व्यक्त न हो सका। फलतः अपना एक पैर कटवा कर तीन पैरों से त्रिष्टुप् भी निराश ही
लौट आयी। अब गायत्री चली एति-प्रेतिरूप उभय बल को लक्ष्य बनाकर। ‘एति च प्रेति-चान्वाह’ ही चतुष्पदा गायत्री की आधारभूमि बना।
परिणामस्वरूप पारमेष्ठ्य गन्धर्व गायत्री के वेग को न सह सके। झपाटा मारकर गायत्री
ने सोम का भी अपहरण कर लिया एव गन्धर्वों के द्वारा क्षत जगती के तीन पैर तथा
त्रिष्टुप का एक पैर, इन
चार पैरों को भी ले आयी। इस आहृत सोम से जहाँ पार्थिव देवता तीन टाँगों वाली
त्रिष्टुप आयी अपना एक पैर माँगने, तो गायत्री ने कहा, वह तो मेरा स्वरूप बन चुका है, तुम चाहो तो मुझ में मिल सकती हो।
त्र्यक्षरा-त्रिष्टुप् अष्टाक्षरा गायत्री से मिलकर एकादशाक्षरा बन गयी। और यों
गायत्री-त्रिष्टुप्-जगती-नामक छन्दों का स्वरूपसमर्पक यह सोमापहरणाख्यान अनेक
सृष्टितत्वों का परोक्षभाषा में विश्लेषण करता हुआ उपरत हुआ, जिसका ‘एतद्ध सौपर्णमाख्यानमाख्यानविद्
आचक्षते’ (श्रुतिः)
इत्यादिरूप से ब्राह्मणग्रन्थों में विस्तार से निरूपण हुआ है।
वेदशास्त्र
के तथाकथित गायत्री रहस्यात्मक सौपर्णाख्यान का ही पुराणशास्त्र ने ‘कद्रूविनता’ के आख्यान के द्वारा विस्तार से उपवृहण
किया है। गरुड़माता विनता तथा सर्पों की माता कद्रू, दोनों की प्रतिद्वन्द्विता से सम्बन्ध
रखने वाले इस पौराणिक आख्यान से आस्तिक मानवश्रेष्ठ तो अवश्य ही परिचित होंगे। इस
प्रकार के आख्यान ही पुराण परिभाषा में ‘असदाख्यान’ कहलाये हैं। (1)- आध्यात्मिक, (2)- आधिभौतिक, (3)- आधिदैविक, (4)- आध्यात्मिकाधिदैविक, (5)- आध्यात्मिकाधिभौतिक, (6)-आधिदैविकाधिभौतिक, (7)- आधिदैविकाधिभौतिकाध्यात्मिक, एव (8)-असत्, भेद से पौराणिक आख्यान आठ स्वतन्त्र
धाराओं में विभक्त हैं, जिनमें
से ‘कदू्रविनताख्यान’
का आठवें
असदाख्यानविभाग से ही सम्बन्ध है। कल्पित कथानक ही असदाख्यान है। सम्भवतः जिसे आप
अपनी प्रियभाषा में ‘माइथालाॅजी’
कहते हैं,
वही हमारा
असदाख्यानविभाग है, जिसका
तात्पर्य है, मिथ्या
ज्ञान कल्पित ज्ञान किंवा कल्पित कथानक। ऋषिप्रज्ञा ने अपनी दूरदर्शिता से यह
अनुभव कर लिया था कि मानव का मौलिक शिक्षाप्रद इतिहास पत्रों (कागजों) पर कभी
स्थायी नहीं रह सकता। अतएव ऋषिप्रज्ञा ने शिक्षात्मक सांस्कृतिक इतिहास को चिरन्तन
बनाने की कामना से नद-नदी, पर्वत तथा नक्षत्र इन तीन प्राकृतिक स्थायी
पत्रों पर इसे लिख डाला। सामान्य श्रेणी के इतिहासों का माध्यम बनी नद-नदियाँ,
मध्यम श्रेणी के
इतिहासों के माध्यम बने पर्वत एवं विशेषरूप से संरक्षणीय लोकशिक्षक इतिहासों का
माध्यम बना नक्षत्रमण्डल। स्मरण रखिए- भारतीय संस्कृति, नदनदियों-पर्वतों-नक्षत्रों पर लिखी
हुई है, जिसे
पृथ्वी का कोई भी आततायी क्षत-विक्षत नहीं कर सकता। शाश्वत सनातन संस्कृति के पत्र
भी शाश्वत ही बने हुए हैं। यही कारण है कि यद्यपि अनेक बार यहाँ के ग्रन्थभण्डार
क्रव्यादाग्नि में आहुत कर दिये दुष्टों ने तथापि यह संस्कृति
नदनदियों-पर्वतों-नक्षत्रों के आख्यान-माध्यम से आज तक अक्षुण्ण ही बनी हुई है,
अक्षुण्ण ही बनी
रहेगी यावच्चन्द्रदिवाकरौ। अवश्य ही कोई वैसा गुप्त अमृतस्रोत उपलब्ध है इस जाति
को, जिसके
बल पर सब ओर से आक्रमण सहती हुई भी यह जीवित है, जीवित रहेगी। ‘अमृतस्य पुत्रा अभूम’ यही इस जाति का चिर उद्घोष है, जिसे कौन अभिभूत कर सकता है।
‘विश्वामित्र
ने किसी अपराध पर अपनी कन्या को शाप दे डाला कि तू आज से पानी बन जा, नदी बन जा। वही अभिशप्ता नदी आज ‘गण्डकी’ के नाम से प्रसिद्ध है’ यह है असदाख्यान का एक उदाहरण। घटना के
स्मरणमात्र के लिए नदी के साथ इस आख्यान को जोड़ दिया है। एवमेव उत्तानपाद के पुत्र
ध्रुव का यद्यपि खगोलस्थ सनातन ध्रुवनक्षत्र से कोई सम्बन्ध नहीं है तथापि
स्मरणमात्र के लिए ध्रुव का आख्यान ध्रुवादि नक्षत्र विशेषों पर डाल दिया गया है।
यही असदाख्यान का दूसरा उदाहरण है। आप कहेंगे- कल्पित कथाएँ क्यों बनायी गयी,
स्पष्ट रूप से
सीधी व्यक्त भाषा से ही क्यों नहीं इन तत्वों का विश्लेषण कर दिया गया। उत्तर
स्पष्ट है। सब आप ही जैसे तो प्रज्ञाशील नहीं है। हमारे जैसे सामान्यप्रज्ञों की
ही संख्या अधिक है, जो
मानस उपलालनात्मक आख्यानव्याज से ही तत्वसीमा के तट का अवगाहन कर सकते हैं। ‘त्यंजति न मृगव्याधरभस’ से प्रसिद्ध प्रजापति का आख्यान- ‘प्रजापतिर्वै स्वां दुहितरमभ्यध्यायन्-दिव
वा, उपसमित्यन्ये’
इत्यादिरूप से
किस सरलता से नाक्षत्रिक मण्डल का विश्लेषण कर देता है, यह तो आख्यान के हृदय का स्पर्श करने
वाले श्रद्धालु ही जान सकते हैं। शिक्षण कौशल से सम्बन्ध रखने वाले इसी असन्माध्यम
का स्पष्टीकरण करते हुए भगवान् भर्तृहरि ने कहा है-
उपायाः
शिक्षमाणानां बालानामुपलालनाः ।
असत्ये
वत्र्मनि स्थित्त्वा ततः सत्यं समीहते ।।
-वाक्यपदी
भूगोल-खगोल-शिक्षण
के लिए माध्यम बनने वाले वत्र्तुलवृत-विविध रेखाचित्र इन कल्पित वृत्तों-चित्रों
के द्वारा ही तो खगोलीय-भूगोलीय-सत्य-स्थितियों का बोध कराते हैं। आप जैसे
प्रज्ञाशील भी तो उपललनात्मक इन माध्यमों से ही शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। फिर
पुराण ने ही क्या अपराध किया ? अपने अन्तर्जगत् में ही समन्वय कीजिए वास्तविक
स्थिति का। अलमतिपल्लवितेन प्रासंगिकेतिवृत्तेन।
‘हृदय’
शब्द से सम्बन्ध
रखने वाले आदान-विसर्ग-स्तम्भन-भावों के द्वारा यह स्पष्ट किया गया कि, स्वयं शब्द ही तद्वाच्य तत्वार्थ के
स्पष्टीकरण की क्षमता रखता है। यही स्थिति ‘वेद’ शब्द की है। विद ज्ञाने, विद लाभे, विद सत्तायाम्-रूप से विद धातु के
ज्ञान, लाभात्मक
रस, सत्ता
तीनों अर्थ है। ज्ञान चित् है, लाभात्मक रस आनन्द है, सत्ता सत् है, समष्टि सच्चिदानन्द हैं, यही ब्रह्म है, यही विद्या है, और यही वेद पदार्थ है। यह है ‘वेद’ शब्द का तटस्थ लक्षण। अब एक वैसे
स्वरूपलक्षण की ओर आपका ध्यान आकर्षित किया जा रहा है जिससे स्पष्ट ही वेद की
तत्वरूपता व्यक्त हो रही है। मन्त्र तैतिरीय ब्राह्मण का है
ऋग्भ्यो
जातां सर्वशो मूर्तिमाहुः -
सर्वा
गतिर्याजुपी हैव शश्वत्।
सर्वं
तेजः सामरूप्यं ह शश्वत् -
सर्वं
हेदं ब्रह्मण हैव सृष्टम् ।।
-तैत्तिरीय
ब्राह्मण 3।12।9।1।
जितनी
भी मूर्तियाँ है, सब ‘ऋक्’ तत्त्व से उत्पन्न हुई हैं। पिण्ड,
मूर्त-भौतिक-पदार्थ,
मरण धम्र्मा
परिवर्तनशील-क्षरकूटात्मक ‘द्रव्य’ ही मूर्ति शब्द की स्वरूप व्याख्या है।
आजकल तो वीतराग साधु महानुभाव ही यहाँ ‘मूर्तियाँ’ कहला रही हैं। प्रश्नोपनिषत् ने- ‘तस्मान्मूर्तिरेव रयि’ के अनुसार ‘रयि’ को ही मूर्ति माना है। प्राणग्नि को
स्व आहुति से चित्य पिण्डरूप में परिणत कर देने वाला स्नेहधम्र्मा भागर्व सोम ही ‘रयि’ है। इसी आधार पर श्रुति ने रयिरूप सोम
को मूर्ति मान लिया है। रयिसोम ही वैदिक परिभाषा में ‘अश्मा-सोम’ कहलाया है, जिसके सम्बन्ध से विशक्लनधम्मा भी
प्राणाग्नि क्षर-भूत-परमाणुओं के कूट का विधरण करता हुआ वस्तुपिण्डरूप में परिणत
हो जाया करता है। ‘ध्रुवोऽसि-धत्र्रमसि-धरुणमसि’
(यजु संहिता 1।18।) के अनुसार भारतीय विज्ञानकाण्ड में
पदार्थों का तीन श्रेणियों में वर्गीकरण हुआ है। ध्रुवावस्था ही निबिडावस्था,
किंवा घनावस्था
है। धत्र्रावस्था ही द्रवावस्था किंवा तरलावस्था है। एव धरुणावस्था ही वाष्पावस्था,
किंवा
विरलावस्था है। जगत् के उपादानभूत भृगु और अंगिरा नामक तत्व इन्हीं तीन अवस्थाओं
के कारण क्रमशः आप-वायुः-सोमः एवं अग्निः-यम-आदित्यः इन तीन-तीन अवस्थाभावों में
परिणत हो रहे हैं। तीनों भार्गव सौम्य तत्वों में से तथा तीनों आंगिरस आग्नेय
तत्वों में से ध्रुवसोम तथा ध्रुवाग्नि के अन्तर्यामसम्बन्धात्मक चितिसम्बन्ध से
ही भौतिक पिण्ड की स्वरूपनिष्पत्ति होती है।
वैदिक
विज्ञान परम्पराओं की विलुप्ति के दुष्परिणाम स्वरूप संस्कृत पाठशाला-विद्यालयों
का सुप्रसिद्ध पाठ्य ग्रन्थ ‘तर्कसंग्रह’ आज-‘सांसिद्धिक द्रवत्वं जले’ रूप से पानी के द्रव धम्र्म को नित्य
मानने की भ्रान्ति कर रहा है, जबकि पानी ध्रुवाग्नि के प्रवेश से तुषार
(बर्फ) बन जाता है, धत्र्राग्निप्रवेश
से द्रुत हो जाता है, एव
धरुणाग्निप्रवेश से वाष्परूप में आकर उत्क्रान्त हो जाता है। पदार्थ विज्ञान की
परिगणित भौतिक परिभाषाओं का दिग्दर्शन कराने वाले स्वयं महर्षि कणाद अपने
वैशेषिकदर्शन में ‘अपा
सघातो, विलयनं
च तेज- संयोगात्’ (वै.
सूत्र) इत्यादि रूप से पानी का संघात तथा विलयन तेज- संयोग पर अवलम्बित मान रहे
हैं तो तर्कसंग्रहकार ने अपने ही न्यायसिद्धान्त के विपरीत कैसे पानी को नित्य
द्रव्य मान लिया ? यह
एक अचिन्त्य ही प्रश्न है। इन्हीं कुछ एक कारणों से संस्कृतविद्या आज उपेक्षा की
वस्तु बनी हुई है, जबकि
संस्कृत भाषा भाषाविज्ञान की दृष्टि से सम्पूर्ण इतर प्राच्य-प्रतीच्य-भाषाओं के
समतुलन में सर्वश्रेष्ठ प्रमाणित हो रही है।
मान्य
राष्ट्रपति महाभाग !
संस्कृत
भाषा पर आज सबसे बड़ा अभियोग यह है कि, ‘यह रटन्त भाषा है, घोकूविद्या है, साथ ही विज्ञानशून्या, अतएव मृतप्राया भाषा है’। रटना तो अवश्य ही पड़ता है इसे।
किन्तु यदि उद्दण्डतापूर्ण यह प्रश्न करने की घृष्टता कर ली जाय तो क्षमा करेंगे
आप मुझे कि जिस भाषा के शब्दों के साथ-साथ अक्षर वर्ण भी रटे जाए, वह भाषा कठिन है ? अथवा जिस के केवल शब्द रटे जाय,
वह भाषा कठिन है
?।
राम-मानवः-मार्जारः-आदि रूप से संस्कृत के शब्द मात्र ही धोके जाते हैं, वर्णाक्षर नहीं। जब कि
अन्यत्र-आर-ए-एम्-राम, एम-ए-एन्-मैन,
सी-ए-टी-केट रूप
से शब्दों के साथ साथ तदवयरूप स्वर-वर्ण भी अनिवार्यरूप से रटने ही पड़ते हैं। रही
बात विज्ञान की तो इस सम्बन्ध में हम आज के युग में कुछ भी निवेदन करने का अधिकार
इसलिए नहीं रखते कि अपनी मूर्खता से हमने अपनी ज्ञानविज्ञान परिषाओं को शताब्दियों
से विस्मृत ही कर दिया है। भाषा विज्ञान की दृष्टि से संस्कृत भाषा जैसी
अर्थगम्भीरा बोधगम्या सरला प्रांजला भाषा विश्व में सम्भवतः ही कोई अन्य भाषा हो।
बिना पारिभाषिक शब्दों के बोध के तो हिन्दीभाषा भी कम जटिल नहीं है। इंग्लैण्ड के
राजपथ में किसी आपण व्यवसायी से यदि ‘लाल मिर्च’ माँगी जायेगी तो वह क्या समझेगा इस
शब्द से। हम संस्कृत भाषा से बहुत दूर चले गये हैं। अतएव सरलतमा भी परम वैज्ञानिकी
यह भाषा आज कठिन प्रमाणित हो रही है।
‘तत्संस्कृतं
किमपि जंगमधामशुद्धं-
यत्राधिदेव
इव वेदपुमान् विभ्राति’ ।
इत्यादि
रूप से उपस्तुता जिस गीर्वाणवासी सुरभारती के कोड में वेदशास्त्र जैसा
ज्ञानविज्ञान कोश सुगुप्त हो, उस भाषा की उपेक्षा कर बैठना अपने स्वरूप को ही
विस्मृत कर देना है। जो विश्व की यच्चयावत् भाषाओं की आद्यजननी है, ऋषिप्रज्ञा ने जिसका ‘सरस्वती’ रूप से यशोवर्णन किया है, अतएव जो वस्तुतः सब ओर से ‘रसवती’ ही है, रसोपवर्षणरूप वीणावादन जिसके नैदानिक
ध्यान से समन्वित है, वह
वाग्देवी किस प्रज्ञाशील को आकर्षित न करेगी। सांस्कृतिक अनुबन्धाकर्षण से सम्भवतः
हम विषयान्तर का अनुगमन कर बैठे हैं।
प्रकृत
में बतला हम यह रहे थे कि, विश्व के भूतभौतिक पिण्डमात्र ऋग्वेद से बनते
हैं। पिण्ड में रहने वाला आदान विसर्गात्मक जो गति तत्व है, वह यजुर्वेद से ही समुद्रभूत है। स्वयं
पिण्ड वस्तु की कोई स्वरूपपरिभाषा नहीं है। जब तक पिण्ड क्रियाशील है, तभी तक पिण्ड पिण्ड है। क्रिया के
उपशान्त होते ही वस्तुपिण्डस्वरूप उच्छिन्न हो जाता है। ‘सर्वा गतिर्याजुपी हैव शश्वत्’ इत्यादि मन्त्रभाग से
यजुर्वेंदानुबन्धनी इस गति का ही स्वरूपविश्लेषण हुआ है। तीसरा वाक्य है- ‘सर्व तेज सामरूप्य ह शश्वत्’। इसके अक्षरार्थ- समन्वय के लिए थोड़ा
प्रज्ञाबल अपेक्षित होगा। सामान्य धारणा ऐसी है कि, हम अपने सम्मुख रक्खे हुए वस्तुण्डि को
ही अपने चम्र्मचक्षुओं से देखा करते हैं। किन्तु वस्तुतः ऐसा है नहीं। पिण्ड तो
केवल स्पृश्य ही बना करता है, जो कभी दृश्य नहीं बन सकता। जिसका हम स्पर्श
करते हैं, उसे
देख नहीं रहे, एवं
जिसे देख रहे हैं, उसका
स्पर्श सम्भव नहीं। मण्डल ही हम देखा करते हैं, पिण्ड को नहीं। महिमारूप पुनः पद को ही
हम देख सकते हैं। पिण्डरूप पद कदापि दृष्टि का विषय नहीं बना करता।
तात्पर्य-प्रत्येक भौतिक वस्तुपिण्ड से चारों ओर स्वयं इस वस्तुपिण्ड को केन्द्र
मानते हुए-बनाते हुए- प्राणात्मक एक स्वतन्त्र रश्मिमण्डल का वितान होता है। इन
बहिम्र्मण्डलों के समन्वय से भी एक-दूसरे जड़-चेतन-पदार्थों के गुण-दोष एक-दूसरे
में संक्रमण कर जाया करते हैं, फिर पिण्डों के पारस्परिक स्पर्श की तो कथा ही
क्या। प्राणात्मक यही रश्मिवितानमण्डल ‘साहस्रीमण्डल’ कहलाया है। वर्तमान भारतीय
दर्शनशास्त्र में चक्षुरिन्द्रिय के माध्यम से प्राप्यकारित्व, एवं अप्राप्यकारित्व प्रश्न को लेकर
बहुत बड़ा विवाद प्रक्रान्त है, जो तत्वत बालोपलालन ही कहा जायेगा, अथवा तो प्रौढिवादमात्र ही माना जायेगा
साहस्रीविद्या की अपेक्षा से। हमारी आँख विषय पर जाती है, अथवा विषय आँख पर आते हैं ?, इस प्रश्न को उठाकर दर्शन ने अन्त में
यह निर्णय किया है कि, जैसे
श्रोत्र-वाक्-घ्राण-त्वक्-आदि इतर इन्द्रियाँ स्व स्थान पर स्थित रहकर विषयग्रहण
करती हुई अप्रात्यकारित्वमर्यादा से आक्रान्त हैं, वैसे ज्योतिम्र्मय चक्षुरिन्द्रिय
अप्राप्यकारी न होकर प्राप्यकारी है। अर्थात् आँख ही विषय पर जाती है। स्पष्ट है
कि, वैदिक
साहस्री विज्ञान की दृष्टि से दर्शन का यह सिद्धान्त कोई महत्व नहीं रखता। न तो
आँख विषय पर जाती, न
विषय (स्पृश्य पिण्ड) आँख पर आता। अपितु पुरोऽवस्थित वस्तुपिण्ड का पूर्वोपवर्णित
महिमामण्डलरूप रश्मिभाव ही चाक्षुष महिमामण्डल में प्रविष्ट होकर विषयप्रत्यक्ष का
कारण बनता है। फलतः वेदान्तदर्शन के तद्विषयक जटिल शास्त्रार्थ का कोई महत्व शेष
नहीं रह जाता। क्यों यह दार्शनिक कलह चल पड़ा इस वैज्ञानिक देश में ? कारण स्पष्ट है। स्पृश्यपिण्ड, तथा दृश्यमण्डल से सम्बन्ध रखने वाले
ऋक् और साम की स्वरूपव्याख्या दर्शनयुग में अभिभूत ही हो गयी थी। दर्शनों के लिए
वेदशास्त्र तो केवल अर्चनीय प्रतिमा ही बन गया था।
स्पृश्य
पिण्ड पृथक् वस्तुतत्व है, एवं दृश्यमण्डल भिन्न वस्तुतत्व है। उदाहरण से
समन्वय कीजिए। औषधि-वनस्पत्यादि से आक्रान्त जिस भूपृष्ठ पर हम बैठते हैं, चलते-फिरते हैं, इसका नाम है- ‘भूपिण्ड’, यही स्पृश्यपिण्ड। पुराणशास्त्र जब भी
सृष्टिविद्या का विश्लेषण करेगा, इस स्पृश्य भूपिण्ड को लक्ष्य न बनाकर
पृथ्वीमण्डल को ही अपना प्रधान लक्ष्य बनाएगा। भूपिण्ड और पृथ्वीमण्डल, दोनों विज्ञानजगत् में सर्वथा विभिन्न
विभक्त वस्तु तत्व हैं। भूपिण्ड उसका नाम हैं, जिस पर आप-हम-सब बैठे हैं। पृथ्वीमण्डल
उसका नाम है, जो
भूपिण्ड से चतुर्दिक् बाहिर की ओर निकल कर व्याप्त होने वाला प्राणात्मक साहस्री
भाव है, जिसका
फैलाव सूर्यपिण्ड से भी कुछ ऊपर तक माना गया है। ‘आदित्यो वै देवरथः’ इस श्रुति के अनुसार सूर्य ‘देवरथ’ कहलाया है। पार्थिव प्राणरस क्योंकि इस
रथात्मक सूर्य की भी सीमा का तरण-अतिक्रमण-कर जाता है, अतएव पार्थिव मण्डलसीमात्मक अवसानात्मक
यह साममण्डल ‘रथन्तरसाम’
कहलाया है।
पुराण कहता है- ‘पृथिवी
के पुष्कर द्वीप से सूर्य प्रतिष्ठित है’। क्या भूपिण्ड के किसी द्वीप पर सूर्य
प्रतिष्ठित है ? नहीं।
मानना पड़ेगा कि भूपिण्ड अन्य तत्व है, एवं पृथ्वीमण्डल कोई अन्य ही तत्व है। भूपिण्ड
को आधार बनाकर जो भूगर्भस्थ प्राणाग्नि उक्थरूप से केन्द्र में आबद्ध रहता हुआ
अर्कात्मक प्राणरश्मिरूप से बहिः आसमन्तात् वितत होता हुआ अपना एक स्वतन्त्र
महिमामण्डल बना लेता है, वही इस वितानरूप विस्तार-फैलाव के कारण ‘पृथ्वी’ कहलाया है, जैसा कि- ‘यदप्रथयत्-तस्मात्-पृथ्वी’ इत्यादि पृथ्वी शब्द के निर्वचन से ही
स्पष्ट है। यह पार्थिव प्राणमण्डल ही साम है, तन्मला विद्या ही ‘सामविद्या’ है, जिसे अनुबन्ध भेद से
पुनःपदविद्या-अर्कविद्या- महिमाविद्या-विभूतिविद्या-ऐश्वर्यविद्या-आदि अनेक नामों
से व्यवहृत किया गया है।
तात्पर्य
निवेदन करने का यही है कि, प्रत्येक वस्तुपिण्ड में से निकलने वाला
सुतीक्ष्ण-सुसूक्ष्म प्राणरश्मिरूप जो तेजोमण्डल है, वही सामवेद है। किंवा सामवेद ही इस
तेजोमय बहिम्र्मण्डलात्मक विभूतिमण्डल का सर्जक बना हुआ है। मण्डल उत्तरोत्तर
ज्यों-ज्यों बड़ा होता जाता है, वस्तुपिण्ड के पाश्र्वाणुद्वय के उत्तरोत्तर
ह्रस्व बनते जाने के कारण मूर्तिभाव उत्तरोत्तर छोटे होते जाते हैं, जिस इस सुसूक्ष्म रहस्य का इस सामयिक
वक्तव्य से कथमपि स्पष्टीकरण सम्भव नहीं है। साममण्डलान्तर्वत्र्ती मूर्तिभावों के
उत्तरोत्तर ह्रसीयान् बनते जाने के कारण वस्तुपिण्ड से हम ज्यों-ज्यों दूर जाते
हैं, त्यों-त्यों
वस्तुपिण्डानुगत मण्डल-भाव हमें छोटा दिखलायी देने लगता है। समीप से वस्तु क्यों
बड़ी, दूर
से वस्तु क्यों छोटी दिखलायी देती है ?, इसका एकमात्र कारण पिण्डावच्छिन्न ऋक्, तथा मण्डलावच्छिन्न साम ही बना करते
हैं। प्रत्येक वस्तुपिण्ड ऋड्मूर्ति है, एवं वस्तुपिण्ड का प्राणमण्डलात्मक तेजोमण्डल
ही साम है, इसी
अभिप्राय से ऋषि ने कहा है- ‘सर्व तेज सामरूप्य ह शश्वत्’।
दृष्टिपथ
का विषय न तो पिण्डात्मक ऋग्वेद ही बनता, न गत्यात्मक यजुर्वेद ही। अपितु विभूतिलक्षण
तेजोमय सामवेद ही दृष्टि का आलम्बन बनता है। अतएव ईश्वरीय विभूति-गणना के प्रसंग
में भगवान् वासुदेव कृष्ण ने- ‘वेदाना सामवेदाऽस्मि’ (गीता) यह सिद्धान्त स्थापित किया है।
कदापि इसका यह तात्पर्य नहीं है कि, ऋक् और यजुः प्रतिष्ठा में न्यून हैं साम की
अपेक्षा से।
किस
तत्व के सहयोग से पिण्डात्मक ऋग्वेद, गत्यात्मक यजुर्वेद, तथा मण्डलात्मक सामवेद का स्वरूप विकास
हुआ ? अब
एकमात्र यही प्रश्न शेष रहा जाता है। इसी शेष प्रश्न का समाधान करते हुए अन्त में
ऋषि कहते हैं- ‘सर्वं
हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम्’। अत्यन्त पारिभाषिक अनुगमभावात्मक यहाँ के ‘ब्रह्म’ शब्द का अर्थ है- ‘अथर्ववेद’। पारमेष्ठय अथर्वा तत्व-जो स्वयम्भू
ब्रह्मा का ज्येष्ठपुत्र माना गया है, - तत्वसृष्टिपरम्परा में सोमात्मक तत्व है।
पिण्डस्वरूप-सम्पादक ऋग्वेद का सम्बन्ध है अग्नि से, गतिस्वरूप सम्पादक यजुर्वेद का सम्बन्ध
है वायु से, एवं
मण्डलस्वरूप सम्पादक सामवेद का सम्बन्ध है आदित्य से। साम का आदित्य से सम्बन्ध है,
सूर्य से नहीं,
यह विशेष रूप से
ध्यान में रखिए। सूर्य और आदित्य पर्याप्य नहीं हैं विज्ञानभाषा में। सूर्य जहाँ
एकाकी चरति, वहाँ
आदित्य प्राण 12
भागों में विभक्त है, जैसाकि
निम्नलिखित आप्तवचन से प्रमाणित है-
इन्द्रो-धाता-भगः-पूषा-मित्रोऽथ-वरुणोऽ-य्र्यमा
।
अंशु-र्विवस्वान्-त्वष्टा
च, सविता-विष्णुरेव
च ।।
इसी
वेदस्वरूपप्रसंग में हम एक स्मृतिवचन और उद्धृत कर रहे हैं। राजर्षि मनु कहते हैं-
अग्नि-वायु-रविभ्यस्तु
त्रयं ब्रह्म सनातनम् ।
दुदोह
यज्ञसिद्धयर्थं ऋग्-यजुः सामलक्षणम् ।।
- मनुः
1।23।
‘प्रजापति
ने यज्ञस्वरूपसिद्धि के लिए, यज्ञ के स्वरूपनिर्माण के लिए
अग्नि-वायु-आदित्य तीन देवताओं से क्रमशः- ऋग्-यजु-साम-इन तीन वेदों को तथा चैथे
सनातनरूप ब्रह्म-अर्थात् अथर्व को दोह लिया,’ यह है उसके वचन का अक्षरार्थ। अथर्वरूप
ब्रह्मवे, जिसे
गोपथ ने ‘सुब्रह्म’
कहा है-
त्रयीब्रह्म की अपेक्षा से ही सोमवेद है, जिसकी आहुति से अग्नित्रयी के द्वारा
अग्नी-षोमात्मक मौलिक यज्ञ का स्वरूप निष्पन्न हुआ है। ऋक्, अर्थात् अग्नि। यजुः- अर्थात् वायु।
साम-अर्थात् आदित्य। अग्नि-वायु-आदित्य से दोहे हुए रसरूप इन ऋक्-यजु-सामो की
समष्टि का नाम है-‘त्रयीवेद’। यह त्रयीवेद स्वस्वरूप से विकसित कब
तक रहता है, जब
तक कि इसके साथ अथर्व नामक सोमब्रह्म की आहुति का सम्बन्ध प्रकान्त रहता है। ध्यान
रहे, अब
इसी वेदचतुष्टयी के माध्यम से हम शनै शनैः अग्नीषोमविद्या के सन्निकट पहुँच रहे
हैं जो आज का मुख्य विषय है। क्या पूर्वप्रतिपादित वेद वेदग्रन्थ हैं। अब भी
सन्तोष न हुआ हो तो एक वचन और लीजिए, जो विस्पष्टरूप से त्रयीवेद की तत्व-रूपता का
दिग्दर्शन करा रहा है। अग्निरहस्य का प्रतिपादन करते हुए भगवान् याज्ञवल्क्य कहते
हैं-
यदेतन्मण्डलं
तपति-तन्महदुक्थं, ता
ऋचः। स ऋचां लोकः।
अथ
यदेतदचिर्दीप्यते-तन्महाव्रतं, तानि सामानि, स साम्नां लोकः।
अथ
य एष एतस्मिन्मण्डले पुरुषः-सोऽग्निः, तानि यजूँषि, स यजुषां लोकः।
सैषा
त्रय्येव विद्या तपति। तद्वैतदप्यविद्वाॅस आहुः- ‘त्रयी वा एषा विद्या तपति’- इति।।
-शतपथब्राह्मण
10।4। 2।1,2।
यह
जो बिम्बात्मक सूर्यमण्डल तप रहा है, वही ‘महदुक्थ’ है, ये ही ऋचाएँ है। यही ऋचाओं का लोक है।
जो यह अर्चि-रश्मि-रूप ज्योतिम्र्मण्डल प्रदीप्त है, प्रकाशमान है, वही महात्रत है, ये ही साम है, यही सामों का लोक है। जो कि इस
पिण्ड-मण्डल में दोनों पुरभावों में प्रतिष्ठित (गतिरूप) पुरुष प्रतिष्ठित है,
वही अग्नि है,
ये ही यजुः हैं,
यही यजुओं का
लोक है। इस प्रकार सूर्य क्या तप रहा है, तीनों वेद ही तप रहे हैं। विद्वान् लोग तो इस
रहस्य को जानते ही है। किन्तु (उस युग के) तो साधारण अपठित ग्रामीण भी इतना तो
जानते ही थे कि ‘सूर्य
साक्षात् तीनों विद्याओं-वेदों का समूह है’- यह है श्रुति का अक्षरार्थ, जिसके तत्वार्थ के लिए तो स्वतन्त्र
ग्रन्थ ही अपेक्षित है।
लक्ष्य
बनाना चाहिए हमें श्रुति के- ‘तद्वैतदप्यविद्वांसः अप्याहुः’ वाक्य को, और पश्चाताप करना चाहिए हमें आज की
अपनी पतनावस्था पर। उस युग में जहाँ मूर्ख भी व्यापक विद्यासंस्कारों के अनुग्रह
से सूर्य को वेदत्रयीमूर्ति जानते थे, वहाँ आज के युग के विद्वान् भी इस तात्विक
वेदपरिज्ञान से परांमुख ही बने हुए हैं। ‘अग्निमीले पुरोहितम्’ इत्यादि लक्षण अकार-ककारादि
वर्ण-शब्द-वाक्यादि संग्रहरूपा शब्दराशि का नाम क्या सूर्यवेद है ?, क्या वेन्दग्रन्थ तप रहे हैं
पिण्ड-मण्डल-एवं अग्निरूप से ? मुकुलितनयन बनकर स्वयं विद्वानों को अपने
अन्तर्जगत् में ही इन प्रश्नों की मीमांसा करनी चाहिए।
पूर्वोक्त
तत्वात्मक वेद किसी मानव की रचना नहीं है, अपितु वह तो ईश्वरीय तत्व हैं अतएव अवश्य ही
तत्वात्मक इस वेद को नित्यकूटस्थ, अतएव अपौरुषेय ही कहा जायेगा। रही बात शब्दात्मक
वेद की, तत्सम्बन्ध
में तो भगवान् कणाद का- ‘बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे’ वचन ही पर्याप्त होगा। इस तत्वात्मक
अपौरुषेय वेद की केवल बुद्धिपूर्वा व्याख्या ही नहीं है यह शब्दात्मक वेदशास्त्र,
जैसा कि
विद्युद्ग्रन्थरूप से पूर्व में हमने संकेत किया था। अपितु वेदशास्त्र वेदतत्व का
प्रतिमान शिल्प है। अतएव यह उससे अभिन्न बना हुआ है जिसका इस अभिन्नता का
साक्षात्कृतधम्र्मा ऋषियों की निभ्र्रान्ता तत्वदृष्टि से ही सम्बन्ध है। यही
अभिन्न सम्बन्ध शब्दार्थ का औत्पत्तिक सम्बन्ध हैं, जिसके माध्यम से पूर्वमीमांसादर्शन के
स्रष्टा भगवान् जैमिनि ने तत्वात्मक वेद से अभिन्न शब्दात्मक वेद को भी
अपौरुषेयकोटि में ही ला खड़ा किया है, जैसा कि उनके निम्नलिखित सूत्रसन्दर्भ से
स्पष्ट है-
‘‘औत्पत्तिकस्तु
शब्दस्यार्थेन सम्बन्धस्तस्य ज्ञानमुपेदेशोऽव्यति-
रेकश्चार्थेऽनुपलब्धो
तत्प्रमाणं वादरायणस्य-अनपेक्षत्वात्’’ ।
-पूर्व
मी.सू. 1।1।5।
भारतीय
प्रज्ञा एक ओर ‘बुद्धिपूर्वा
वाक्यकृतिर्वेदे’ कहती
हुई भी शब्दात्मक वेदग्रन्थ को कैसे और क्यों अपौरुषेय मान रही है ? किस आधार पर इसका-
‘अचिन्त्याः
खलु ये भावा न तांस्तर्केण योजयेत् ।।
प्रकृतिभ्यः
परं यच्च तदचिन्त्यस्य लक्षणम् ।।1।।
आविर्भूतप्रकाशानामनभिप्लुतचेतसाम्
।।
ये
भावा, वचनं
तेषां नानुमानेन बाध्यते ।।2।।
अतीन्द्रियानसंवेद्यान्
पश्यन्त्यार्षेण चक्षुषा ।।
अतीतानागतज्ञानं
प्रत्यक्षान्न विशिष्यते ।।3।।’
इत्यादि
लक्षण अपौरुषेयसम्मत निभ्र्रान्त सिद्धान्त स्थापित हुआ ? इत्यादि प्रश्न चिरन्तना ब्राह्मी
प्रज्ञा नाम की ‘प्रज्ञापुराणी’
से ही
अनुप्राणित हैं।
निरूपित
तात्विक वेदस्वरूप के आधार पर अब हमें इस निष्कर्ष पर पहुँच जाना पड़ा कि, ऋक्-यजु-साम-अथर्वनाम के चारों तत्ववेद
क्रमशः अग्नि-वायु-आदित्य-सोमात्मक हैं। इनमें आदि की अग्निविद्या ही ऋग्विद्या है,
तत्प्रतिपादक
शब्दात्मक वेदशास्त्र ही ऋग्वेद है। दूसरी वायुविद्या ही यजुर्विद्या है, तत्प्रतिपादक शास्त्र ही यजुर्वेद है।
तीसरी आदित्यविद्या ही सामविद्या है, तत्प्रतिपादक शास्त्र ही सामवेद है। एवं चैथी
सोमविद्या ही अथर्वविद्या है, तत्प्रतिपादक शास्त्र ही अथर्ववेद है।
घनताप्रवर्तक अग्नि से अनुप्राणित पिण्ड, किंवा मृर्तिस्वरूपसम्पादक वेद ही ऋग्वेद है,
यही पार्थिववेद
है। तरलताप्रवर्तक वायु से अनुप्राणित गतिस्वरूप सम्पादक वेद ही यजुर्वेद है,
यही आन्तरिक्ष्य
वेद है। विरलताप्रवर्तक आदित्य से अनुप्राणित मण्डलस्वरूप सम्पादक वेद ही सामवेद
है, यही
दिव्यवेद है। एवं अग्नित्रयी का स्वरूपसमर्पक यज्ञप्रवर्तक सोमवेद ही अथर्ववेद है,
यही पारमेष्ठ्य
वेद है। इस प्रकार चारों वेदों के लिए चार लोकों की कल्पना की गयी है। कल्पना की
है आपने, और
हमने, जो
मानस कल्पना में ही अहोरात्र विभोर हैं। ऋषिप्रज्ञा के लिए तो यह सब कुछ
त्रिकालाबाधित सत्य सिद्धान्त है। देखिए। ऋषिप्रज्ञा क्या कह रही है इस सम्बन्ध
में-
‘त्रयो
वा इमे त्रिवृतो लोकाः। अस्ति वै चतुर्थो देवलोक आपः। प्रजापतिस्तपोऽतप्यत। स
तपस्तप्त्वा प्राणादेव इमं लोकं, अपानादन्तरिक्षलोकं, व्यानादमुं लोकं प्रावृहत्।
सोऽग्निमेवा-स्माल्लोकात्- वायुमन्तरिक्षलोकात्-आदित्यं दिवः-असृजत्।
सोऽग्नेरेवर्चः, वायोर्यजूपि,
आदित्यात्
सामानि- असृजत’।
शांखायनब्राह्मण
6।10।
अन्नात्मक
चतुर्थ सोमरूप अथर्व को स्वगर्भ में अन्तर्लीन कर लेने वाले अन्नादात्मक
अग्नि-वायु-आदित्यरूप ऋक्-यजु-साम ही प्रधान बने रह जाते है। इसी आधार पर वेद का
सुप्रसिद्ध त्रित्वमूलक त्रि सत्यवाद प्रतिष्ठित है- ‘त्रि सत्या वै देवा’। प्राणात्मक आग्नेय देवता से
अनुप्राणित मानव का भूतात्मा त्रित्व के आधार पर ही सत्य का अनुगामी बनता है। ‘सकृदिव वै पितर’ के अनुसार जहाँ सोम्य पितर सकृद्रूप एक
बार से सगृहीत हैं, वहाँ
आग्नेय देव तीन बार के अभिक्रम से ही आत्मसात् बना करते हैं। तीन बार शान्तिपाठ,
तीन बार आचमन,
तीन बार सन्ध्या,
आदि आदि रूपेण
इस त्रित्व-वाद के यच्चयावत् विवर्त इस देवतात्रयी पर ही अवलम्बित हैं। यहाँ तक कि
लोक-व्यवहारों में भी न्यायालयों में आव्हानादि तीन बार ही लोकसम्मत बने हुए हैं।
ऐसा क्यों ? इसलिए
कि-‘आत्मा
उ एक. सन्नेतत् त्रयम्, त्रय
सदेकमयमात्मा’।
इसी देवसत्य के आधार पर ही तो राष्ट्रपति महाभाग ने आरम्भ में तीन दिन का
कार्यक्रम आदिष्ट करते हुए अपने दैवभाव को ही व्यक्त किया है। स्मरण कीजिए-
अन्तर्यामी नामक उस प्रारम्भिक ‘हृदय’ को, जो सत्यमूर्ति तीन अक्षरों के द्वारा ही विश्व
का साक्षी बना हुआ है।
ऋग्वेदात्मक
अग्नि पार्थिव, अर्थात्
भौम है। भूपिण्ड आपके सम्मुख उपहित-अवस्थित-प्रतिष्ठित है। इसी रहस्य को सूचित
करने के लिए पार्थिव ऋग्वेदाग्नि के निरूपक ऋग्वेदग्रन्थ का उपक्रम हुआ है- ‘अग्निमीले पुरोहितं होतारं रत्नधातमम्’
इस मन्त्र से। ‘पुरोहितम्’ का अर्थ है- ‘पुरतः-सम्मुखे-अवस्थित- पार्थिवाग्नि
स्तौमि’।
इस ‘पुरोहितम्’
विशेषण के
द्वारा ऋषि यह संकेत कर रहे हैं कि ‘हम इस ऋग्वेद में पार्थिव ऋगग्नि के माध्यम से
ही सृष्टिविज्ञान का निरूपण कर रहे हैं।’ यजुर्वेद का उपक्रम मन्त्र है- ‘इमे त्वोर्जे त्त्वा वायवस्थ देवो वः
प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कम्र्मणे’ स्पष्ट ही- ‘वायवस्थ’ पद आन्तरिक्ष्य गतिलक्षण वायुरूप यजुः
तत्व की ओर हमारा ध्यान आकर्षित कर रहा है। आदित्य सामवेदात्मक है जो भूलोक से
बहुत दूर द्युलोक को अपनी प्रतिष्ठा बनाये हुए है। तभी तो सामवेद का उपक्रम- ‘अग्न आयाहि वीतये गृणानो हव्यदातये’
इत्यादि मन्त्र
से हुआ है। जो दूर होता है, उसी का ‘आयाहि’-‘आइए’-रूप से आव्हान होता है। इसी प्रकार
शब्दात्मक इन चारों वेदों के 21-101-1000-9- ये शाखाविभाग भी तत्वात्मक वेद की
प्राणमयी शाखासंख्याओं से ही सर्वात्मना संतुलित हैं। अग्नि के ऋण-वन-क्रम से 21 विवर्त हैं, वायुप्रजापति ‘प्रजापतिरेकशतविध’ के अनुसार 101 विवत्र्ताें में विभक्त है। कौन सा
वायु ? प्राणात्मक
यजु वायु, जिसका
मौलिक रूप यद्यपि ‘यज्जू’
है तथापि जो
परोक्षभाषा में कहलाया है- ‘यजुः’ ही। लक्ष्य बनाइए निम्नलिखित श्रुतिवचन को -
‘अयं
वाव यजुः योऽयं पवते। एष हि यन्नेवेदं सर्वं जनयति। एतं यन्तमिदमनु प्रजायते।
तस्माद्वायुरेव यजुः। अयमेवाकाशो जूः-यदिदमन्तरिक्षम्। एतं ह्याकाशमनु जवते।
तदेतत्-यजुर्वायुश्चान्तरिक्षऽ´्च। यच्च जूश्च। तस्माद्यजुः।
तदेतत्-यजुर्ऋक्सामयोः प्रतिष्ठितम्। ऋक्सामे वहतः’।
-शतपथब्राह्मण
10।34।1,2,।
स्पष्ट
है कि, शब्दात्मक
वेदग्रन्थ के शाखाविभाग भी मानवीय कल्पना नहीं है, जैसा कि आजकल के वेदभक्त विद्वान् मान
रहे हैं। अपितु नित्य तत्ववेद के शाख विभागों के अनुपात से ही वेदग्रन्थ में
शाखाविभाग व्यवस्थित हुए हैं। आरम्भ से हमने सर्वत्र ‘परोक्ष’ भाव की ओर संकेत किया है और बतलाया है
कि देवता परोक्षभाव से तो प्रेम करते हैं, एवं प्रत्यक्षभाव से शत्रुता रखते है- ‘परोक्षप्रिया इव हि देवाः, प्रत्यक्षद्विषः’। क्या तात्पर्य है इस परोक्षता का ?
दो शब्दों में
इस प्रासंगिक प्रश्न का भी समन्वय कर लीजिए।
नग्नतानुबन्धी
प्रत्यक्षभाव, जिसे
प्रान्तीय भाषा में ‘फुहड़पन’
कहते हैं,
भारतीय
शिष्टाचार के सर्वथा विरुद्ध माना गया है। लौकिक क्षेत्र हो, अथवा तो आध्यात्मिक क्षेत्र, सर्वत्र प्रत्येक क्षेत्र में परोक्षता
ही यहाँ का आदर्श रहा है। क्यों ? इसलिए कि यहाँ केवल प्रत्यक्ष जड़ भूत ही उपात्य
नहीं है। अपितु भूत के साथ साथ प्राण ही यहाँ मुख्यरूप से अनुगमनीय रहा है। भूत का
आधारभूत प्राण तत्व रूप-रस-गन्ध-स्पर्श-शब्द नामक पाँचों तन्मात्राओं से अतीत,
अतएव सुसूक्ष्म,
अतएव
इन्द्रियातीत, अतएव
च केवल सत्तासिद्ध अधामच्छद तत्व है, जिस इत्थंभूत प्राणतत्व का ‘प्राणोपनिषत्’ नाम की प्रश्नोपनिषत् में विस्तार से
निरूपण हुआ है। सर्वाधार, किंवा विश्वावारभूत इसी परोक्ष इन्द्रियातीत
प्राणतत्व के संग्रह के लिए ऋषिप्रज्ञा ने परोक्षता को प्रधानता दी है, एवं बाह्य-प्रचार-सर्वत्र
डिण्डिमघोष-आदि ऐन्द्रियक विश्वानुबन्धो-लोकानुबन्धो से सम्बन्ध रखने वाले
प्राणप्रतिष्ठावंचित प्रचारवाद को, प्रत्यक्षवादात्मक इस वागविजृम्भण को, वर्तमान भाषानुसार ‘पब्लिसीटी’ को तत्वचिन्तनधारा में कोई विशेष
सम्मान नहीं दिया। गुहानिहिता परोक्षप्रज्ञात्मिका अन्तःप्रज्ञा ही यहाँ सदा से
मूलप्रतिष्ठा प्रमाणित होती रही है।
ऋग्-यजुः-साम-अथर्वात्मक
जिन अग्नि-वायु-आदित्य-सोम-भावों का पूर्व में उल्लेख हुआ है वे सर्वथा प्राणात्मक
ही है। अभी भौतिक अग्नि-सोम का प्रसंग उपस्थित ही नहीं हुआ है। भूताग्नि तो वह
अग्नि है, जिस
प्रत्यक्षदृष्ट प्रज्वलित भूताग्नि से सूर्यास्त के अनन्तर रश्मियाँ निकलने लगती
हैं, एवं
जो परिभाषादृष्टया ‘वस्वग्नि’
नाम से प्रसिद्ध
है। इसी प्रत्यक्षदृष्ट भूताग्नि का निरूपण करते हुए ऋषि कहते हैं-
अग्निं
तं मन्ये यो वसुरस्तं यं यन्ति धोनवः।
अस्तमर्वन्त
आशवोऽस्तं नित्यासो वाजिनं इषं स्तोतृभ्य।।
-ऋक्संहिता
5।61।
ऋषि
कहते हैं, हम
भूताग्निरूप अग्नि उसे मानते हैं, जो वसु है, अर्थात् पार्थिव वसुरूप भूतभाव से
समन्वित है, जिससे
पार्थिव विवर्त ‘वसुन्धरा’
कहलाया है,
एवं सूर्यास्त
के अनन्तर जिससे धोनु, अर्थात्
किरणें निकला करती हैं। भौतिकजगत् में जो यह भूताग्नि ज्वालारूप से प्रत्यक्षदृष्ट
है, प्राणियों
की शरीरस्था में यही तापधर्मा प्रत्यक्षानुभूत भौतिक अग्नि ‘वैश्वानराग्नि’ कहलाया है, जिसकी भारतीय प्रजा अपने सांस्कृतिक
जीवन में प्रतिदिन उपासना किया करती है। सुसंस्कृत, अतएव आस्तिक परिवारों में गृहदेवियाँ
वैश्वानराग्नि के प्रतीकभूत अंगाराग्नि में अन्नाहुति समर्पण करने के अनन्तर ही
पारिवारिक व्यक्तियों को भोजनाधिकार प्रदान करती हैं, जिस इस कम्र्म को हमारी राजपत्तनभाषा
में ‘बेसन्दर
जिमाणा’ कहा
गया है। आज तो घर में भोजन करने का प्रश्न ही गौण बन गया है। जहाँ महद्भाग से ऐसी
पद्धति प्रक्रान्त है, वहाँ
वैश्वानराग्नि का अनुध्यान आज भी यथावत् प्रतिष्ठित है। क्या स्वरूप है इस
वैश्वानराग्नि का ? श्रूयताम्-
बतलाया
गया है कि पृथ्वी-अन्तरिक्ष-द्यौः नामक तीन लोक हैं जो तीन स्वतन्त्र विश्व माने
गये हैं वैदिक परिभाषा में। इन तीनों विश्वों में क्रमशः ऋक्-यजुः-सामात्मक
अग्नि-वायु-आदित्य-नामक तीन प्राणाग्नियाँ प्रतिष्ठित हैं। ये तीन प्राणाग्नियाँ
ही इन पृथिव्यादि तीनों विश्वों के नर-नायक-अधिष्ठाता माने गये हैं, जिस अधिष्ठातृपद के लिए वेद में ‘अतिष्ठावा’ पद आया है इसी पद के लिए एक सांकेतिक
नाम है- ‘शवसोनपात्’। ‘भू’ यह पहिला विश्व है जो कि पृथिवी है। ‘भुव’ यह दूसरा विश्व है जो कि अन्तरिक्ष है।
‘स्व’
यह तीसरा विश्व
है जो कि द्यौ है, तीनों
विश्वों के अग्नि-वायु-आदित्य-नामक प्राणाग्निरूप शवसोनपात् नरों का परस्पर यजन हो
जाता है, जो
यजनप्रक्रिया ‘तानृनप्त्रकम्र्म’
नाम से प्रसिद्ध
है। पारस्परिक समन्वयात्मक शपथ ग्रहण के लिए ही वेद में तानृनप्त्र शब्द विहित है,
इसी के बल पर
देवताओं ने असुरों को परास्त किया है। आज भी लौकिक विधि-विधानों में शपथ
ग्रहणात्मक यह तानृनप्त्रकम्र्म प्रचलित है, तीनों विश्वों के इन तीन नरों के
संघर्ष से, दूसरे
शब्दों में यजन से जो संयौगिक त्रैलोक्यव्यापक तापधम्र्मा अपूर्व अग्निभाव उत्पन्न
होता है, उसी
का नाम है, ‘विश्वेभ्यः
पृथिव्यन्तरिक्षद्युलोकेभ्यः नरेभ्यः-अग्निवाय्वादित्यैः जात-उत्पन्न-अग्नि’
इस निर्वचन से ‘वैश्वा-नर’ कहलाया है, जिसका उपनिषदों की ‘वैश्वानरविद्या’ में षडंगवैश्वानररूप में विस्तार से
विश्लेषण हुआ है। ‘आ
यो द्यां भात्यापृथिवीम्’- वैश्वानरो यतते सृय्र्येण’ इत्यादि श्रौत वचन भूपिण्ड से
द्युपय्र्यन्त इस त्रिधम्र्मा वैश्वानर अग्नि की व्याप्ति बतलाते हैं। त्रैलोक्य
में जो एक प्रकार की अस्फुट ध्वनि प्रतिष्ठित है जो नाद की उत्तरावस्था मानी गयी
है जो शब्द की जननी बनती है, वह यही वैश्वानर की महिमा है, जिसके आधार पर ‘अग्निर्वाग्-भूत्त्वामुन्व प्राविशत्’
सिद्धान्त
स्थापित हुआ है। एवं जिसके आधार पर ही भगवान् भाष्यकार का ‘तस्माद्ध्वनिः’ शब्द उद्घोष हुआ है। आध्यात्मिक
शारीरिक संस्था से वस्तिगुहा भू है, उदरगुहा भुव है, उरोगुहा स्व है, एवं शिरोगुहा चैथा परमेष्ठ्य लोक है।
आरम्भ के तीनों गुहास्थानों में क्रमशः पार्थिव अपान, आन्तरिक्ष्य व्यान, दिव्य प्राण ये तीन प्राणाग्नियाँ
प्रतिष्ठित हैं, जो
क्रमशः आध्यात्मिक अग्नि-वायु-आदित्य ही हैं। जिनके लिए महर्षि पिप्पलाद ने कहा है,
‘प्राणाग्नय
एवैतस्मिन्-शरीरे जाग्रति’ (प्रश्नोपनिषत् 4।3।)। अपान-ध्यान-प्राण रूप इन तीनों
शारीरिक प्राणाग्नियों के ‘उपाश्वन्तर्याम’ नामक संघर्ष से जो अपूर्व भौतिक
तापधर्मा अग्नि उत्पन्न होता है, वही आध्यात्मिक ‘वैश्वानर’ कहलाया है, जो उक्तरूप से जठर स्थान में
प्रतिष्ठित रहता हुआ अर्करूप से सर्वांगशरीर में व्याप्त है, केशलोमो को तथा नखाग्रभागों को छोड़ कर।
आलोमभ्य, आनखाग्रेभ्य-व्याप्त
वैश्वानराग्नि को कर्णछिद्र पिनद्ध करके, नासाछिद्ध अवरुद्ध करके साक्षात्-रूप से अनुभूत
किया जा सकता है। कान-नाक बन्द करने से जो एक धक्-धक्-ध्वनि सुनायी पड़ती है,
यही वैश्वानर का
श्रवण है। एवं जहाँ-जहाँ स्पर्श करते हैं, तापलक्षणा ऊष्मा का प्रत्यक्ष होता है, यही इसका प्रत्यक्ष है। सैषा दृष्टिः-
श्रुतिः। ‘अहं
वैश्वानरो भूत्त्वा प्राणिनां देहमाश्रित’ (गीता) इत्यादि गीतावचन इसी शारीरिक
जाठराग्निरूप वैश्वानराग्नि का निरूपण कर रहा है। वैश्वानराग्नि के इसी स्वरूप को
लक्ष्य बनाकर श्रुति ने कहा है-
(1) ‘स
यः स वैश्वानरः इमे स लोकाः। इयमेव पृथिवी विश्वं, अग्निर्नरः। अन्तरिक्षं विश्वं,
वायुर्नरः।
द्यौरेव विश्वं, आदित्यो
नरः (विश्वेभ्यो नरेभ्यो जातः अग्निरेव यौगिको वैश्वानरः)’। (शतपथब्राह्मण 9।3।1।3)।
स
एष आधिदैविको-वैश्वानराग्निः।
(2)- ‘अयमग्निवैश्वानरः-योऽयमन्तः
पुरुषे (शरीरे प्रतिष्ठितः)। येनेदमन्नं पच्यते, यदिदमद्यते। तस्यैप घोपो भवति, यमेतत्कर्णावपिधाय शृणोति।
स
यदा-उत्क्रमिष्यन् भवति-नैतं घोपं शृणोति’।
-शत.ब्रा.
14।8।10।1।।
ऋक्-यजु-सामात्मक
अग्नि वायु-आदित्य नामक ‘प्राणाग्नि’, एवं अथर्वात्मक ‘सोम’ नामक ‘प्राणसोम’, यह अग्नि-सोम का पहिला मौलिक प्राणरूप
युग्म हुआ। एवं इन तीन प्राणाग्नियों से उत्पन्न ताप तथा घोषधम्र्मा
वैश्वानराग्निरूप ‘अग्नि’
तथा चतुर्विध
भूतान्नरूप भूतसोम (जिसकी वैश्वान राग्नि में आहुति होती रहती है) यह अग्निसोम का
दूसरा यौगिक युग्म हुआ। वेदाग्निसोमयुग्म अग्निसोम का ‘प्रथमावतार’ कहलाया, एवं वैश्वानराग्निरन्न युग्म अग्नि-सोम
का द्वितीयावतार कहलाया। इन दोनों युग्मों के आधार पर सर्वथा स्थूलरूपात्मक
महाभूतात्मक जो तीसरा अवतार होने वाला है, वही सम्वत्सरयज्ञमूलक अग्नि-सोम है जो आज के
वक्तव्य का मुख्य लक्ष्य बना हुआ है, एवं जिसका दो शब्दों में ही स्पष्टीकरण होने
वाला है।
अग्नि-वायु-आदित्यरूप
वेदात्मक प्राणग्नियो के संघर्ष से उत्पन्न पूर्वोक्त वैश्वानर अग्नि के आगे जाकर ‘विराट्-हिरण्यगर्भ-सर्वज्ञ’ ये तीन अवान्तर विवर्त हो जाते हैं।
अग्नि को आधार बनाकर जब इसमें आन्तरिक्ष्य वायु, दिव्य आदित्य, इन दोनों की आहुति होती है, तीनों के समन्वय से उत्पन्न
अग्निप्रधान त्रिमूर्ति वही वैश्वानर ‘विराट’ कहलाने लगता है। वायु को आधार बनाकर इसमें
अग्नि-आदित्य की आहुति होने से समुत्पन्न त्रिमूर्ति वही वैश्वानर ‘सर्वज्ञ’ कहलाने लगता है। विराट वैश्वानर
सहस्रपात् है, हिरण्यगर्भ
वैश्वानर सहस्राक्ष है, एवं
सर्वज्ञ वैश्वानर सहस्रशीर्ष है। ‘त्रयो वा इमे त्रिवृतो लोका’- त्रिवृदग्नि’ इत्यादि श्रुतियाँ अग्नि-वायु-आदित्य
के इसी त्रिवृद्भाव का स्पष्टीकरण कर रही हैं जिसका छान्दोग्योपनिषत् की- ‘तासा त्रिवृतां त्रिवृतामेकैकां करवाणि’
इत्यादि
त्रिवृत्करणप्रक्रिया से स्पष्टीकरण हुआ है। तीनों ही त्रि-त्रिः रूप हैं। अन्तर
तीनों में केवल यही है कि विराट् अग्निप्रधान हे, हिरण्यगर्भ वायुप्रधान है एवं सर्वज्ञ
आदित्यप्रधान है। तात्पर्य यही है कि त्रिमूर्ति अग्निप्रधान विराट् अर्थशक्ति का
प्रवर्तक है, त्रिमूर्ति
वायुप्रधान हिरण्यगर्भ क्रियाशक्ति का संचालक है एवं त्रिमूर्ति आदित्यप्रधान
सर्वज्ञ ज्ञानशक्ति का उक्थ है। यों अपने तीन रूपों से वेदाग्नि-सोम पर प्रतिष्ठित
अग्नि-वायु-आदित्य कृतमूर्ति वैश्वानराग्नि ज्ञान-क्रिया-अर्थ-भावों का प्रवर्तक
बनता हुआ अधिदैवत तथा अध्यात्म का संचालन कर रहा है। अर्थशक्तिप्रधान अग्निप्रमुख
विराट् का प्रवग्र्यांश ही अध्यात्म में ‘वैश्वानर’ कहलाया है। क्रियाशक्तिप्रधान
वायुप्रधान हिरण्यगर्भ का प्रवग्र्यांश ही ‘तैजस्’ कहलाया है। एवं ज्ञानशक्तिप्रधान
आदित्यप्रमुख सर्वज्ञ का प्रवग्र्यांश ही ‘प्राज्ञ’ कहलाया है।
विराट्-हिरण्यगर्भ-सर्वज्ञ-रूप अग्नित्रयमूर्ति देवसत्य ही जीव या ईश्वर है एवं
वैश्वानर-तैजस-प्राज्ञ-रूप अग्नित्रयमूर्ति देवसत्य ही ईश्वर का प्रवग्र्यभूत जीव
है, जिसका-
‘तेन
त्यक्तेन भुंज्जीथाः’ से
निरूपण हुआ है। ‘अग्नित्रयमूर्ति
ईश्वरीय देवसत्य साक्षी सुपर्ण कहलाया है, ये ही वैदिक तत्ववाद के पारिभाषिक ‘भगवान्’ हैं। एवं अग्नित्रयमूर्ति जैव देवसत्य
भोक्ता सुपर्ण है, यही
पारिभाषिक ‘भगवदंश’
रूप जीव है,
जिसके लिए- ‘ममैवाशो जीवलोके जीवभूतः सनातन’
(गीता) यह
सिद्धान्त स्थापित हुआ है एवं जिसका श्रुति ने यों यशोगान किया है-
द्वा
सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः
पिप्पलं स्वाद्वत्यनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति।।
-ऋक्संहिता
1।164।20
मानव
के अपने प्रज्ञाधरातल से ज्ञान-क्रिया-अर्थ इन तीन तत्वों के अतिरिक्त सम्भवतः और
कुछ भी तत्ववाद शेष नहीं रह जाता, जिनका क्रमशः
प्राज्ञ-तैजस-वैश्वानरानुबन्धी-बुद्धि-सेन्द्रियमन-शरीर-इन तीन तन्त्रों से क्रमिक
सम्बन्ध है। अतएव मानव इन तीन शक्तियों पर ही अपने स्वरूप का विश्राम मान बैठता है
क्योंकि मानव के सम्पूर्ण लोकानुबन्ध ज्ञान क्रियार्थभावों पर परिसमाप्त है। मानव
की इस महती भ्रान्ति के निराकरण के लिए ही तलवकारोपनिषत् प्रवृत्त हुई है जो ‘केनोपनिषत्’ नाम से प्रसिद्ध है। वहाँ बतलाया गया
है कि त्रैलोक्य के अग्नि-वायु-इन्द्र-नामक अर्थ-क्रिया-ज्ञान-शक्तिसम्पन्न इन तीन
देवताओं ने ‘अत्माकमेवेदभुवनम्’
संसार हमारा ही
है, संसार
में हम ही सब कुछ हैं, इस
अतिमान का अनुगमन कर लिया। इनके इस अतिमान के निराकरण के लिए एक महा यक्ष
प्रादुर्भूत होते हैं। (जो कि चिदव्यब्रह्म का ग्राहक ‘महान्’ ही है)। वे एक तृण इनके सम्मुख रख देते
हैं जिसे अर्थाभिमानी अग्नि जला नहीं सकते, क्रियाभिमानी वायु उड़ा नहीं सकते।
ज्ञानाभिमानी इन्द्र के आते ही तृण अन्तर्लीन हो जाता है। ज्ञानीय तृण समानधर्मा
ज्ञानधर्मा इन्द्र को स्वमहिमा में विलीन कर लेता है। यहाँ आकर पारमेष्ठ्य सोममयी
चिद्ग्राहिणी हैमवती उमा नाम की महच्छक्ति आविर्भूत होती है और वह इन तीनों का यों
उद्बोधन कराती है कि ‘ब्रह्मणो
वा विजये महीयध्वम्’।
यह तुम्हारी विजय नहीं है, अपितु ब्रह्म के विजय में ही तुम विश्वविजयी
बने हुए हो। तात्पर्य इस तात्विक आख्यान का यही है कि अग्नि-सोम ही सब कुछ नहीं है,
उनसे बँधी
ज्ञानक्रियार्थशक्तियों पर ही मानव की मानवता विश्रान्त नहीं है। अपितु बुद्धिगत
इन्द्र से भी परे अवस्थित लोकातीत आत्मब्रह्म का स्वस्वरूप से अभिव्यक्त होना ही
मानव की मानवता है। इस आत्मब्रह्म को मूलप्रतिष्ठा बनाये बिना त्रिदेवता, उससे अनुप्राणिता ज्ञानक्रियार्थ-
शक्तित्रयी, तदाधारेण
प्रतिष्ठित प्रत्यक्षदृष्ट भूत-भौतिक प्रपंच-सब कुछ व्यर्थ है।
जिन्हें
हम ‘जड़जीव’
कहते हैं,
उनमें केवल
अर्थशक्तिप्रधान वैश्वानराग्नि की प्रधानता है। अतएव इन्हें ‘एकात्मकजीव’ माना गया है। क्या इनमें क्रिया,
और ज्ञान नहीं
है ? है,
और अवश्य है। ‘ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां
जगत्’ के
अनुसार ईशब्रह्म की सत्ता से सभी समन्वित हैं। इसी हृत-प्रतिष्ठ आत्मभाव को लक्ष्य
बनाकर ही तो ऋषिप्रज्ञा ने एक पत्थर के लिए भी तो ‘शृणोतु ग्रावाणः’ (हे पाषाणों। आप हमारी प्रार्थना सुने!)
यह कह दिया है। स्मरण रखिए, वर्तमान तत्वविशोधकों की भाँति यह कोई आलंकारिक
भाषा नहीं है, अपितु
विज्ञानसिद्ध तत्वभाषा है। अलंकारों का, तन्मूला काल्पनिक परम्पराओं का, तन्मूलक काल्पनिक कविताव्यासंगो का
जन्म तो कल हुआ है, जिसे
पुरातत्ववादी ‘गुप्तकाल’
कहा करते हैं।
जानना चाहते हैं आप देवमहर्षि की कविता का स्वरूप ? सुनना चाहते हैं आप प्रजापति की कविता
से सम्बन्ध रखने वाले अलंकारों का उपवर्णन ? तो सुनिए!
विधुं
दद्राणं समने बहुनां युवानं सन्तं पलितो जगार ।
देवस्य
पश्य काव्यं महित्वाद्या ममार स ह्यः समान ।।
-ऋक्संहिता
10।55।5।
हँसते-खेलते
प्राणन-अपानन धम्र्मा एक सुसमृद्ध परिवार में-जिसका कि अब तक विश्व में कोई
स्मरण-उल्लेख भी नहीं था, ऐसा एक नवीन मानव प्राणी आविर्भूत हो पड़ता है-
अत्यन्त ही कलापूर्ण आकार को लिए हुए। यही बालमानव कालान्तर में विधाता की महान्
कलाकृतियों से पुष्पित-पल्लवित होता हुआ वयस्क युवा बन जाता है, हट्टा-कट्टा जवान बन जाता है। यही मानव
की दूसरी समृद्धावस्था है। आगे चल कर यही युवा मानव प्रजापति की एक नवीन कविता के
विन्यास से उस अवस्था में परिणत हो जाता है, जिसमें इसका सम्पूर्ण सौन्दर्य
धूलिपसरित हो जाता है। मुण्ड पलित हो जाता है, तुण्ड दर्शनविहीन बन जाता है, चम्र्म विगलित हो जाता है, शरीरयष्टि वक्र बन जाती है। पुनः यही
एक दिन सहसा ऐसा विलीन हो जाता है, मानो यह कभी विश्व प्रांगण में था ही नहीं। और
फिर ? फिर
वह जन्मान्तर धारण के लिए सज्जीभूत बन जाता है। यह हे प्रजापतिदेव की, पारमेष्ठ्य भार्गव सोमदेव की
चिद्विशिष्टा वह जीवनीया सहज काव्यधारा, जो अनाद्यनन्त प्रवाह से चक्रमाण है। निर्माण
कर सकेंगे क्या आप ऐसे विविधाकाराकारित आश्चर्यप्रद सहजसिद्ध आलंकारिक महान् काव्य
का ? भृगु
ही वे महान् कवि हैं, जो
अपने महल्लक्षण वीध्र सोम को अग्नि से समन्वित कर यज्ञिय शिल्प के द्वारा
सर्गावस्था में इन विचित्र सृष्टिकाव्यों का सर्जन करते रहते हैं, एवं प्रतिसर्गावस्था में स्वमहिमा में
इनका संवरण भी करते रहते हैं। परिवर्तनभावात्मक-नवनव कलाकृति
समन्वित-जन्म-मृत्यु-प्रवाहात्मक इस महान् काव्य के स्वरूपबोध के आधार पर मृत्यु
पर विजय प्राप्त करना ही क्रान्तिदर्शी ऋषियों के महान् काव्य वेदशास्त्र का महान्
आलंकारिक सौष्ठव है, जिसके
साथ मृत्युभावप्रवर्तक मनःशरीरविनोदानुबन्धी शृंगारादिभावनिबन्धन लौकिक, साहित्य-संगीत- कला-भावात्मक मानवीय
काव्यों का कोई समतुलन नहीं किया जा सकता। विश्वरूप प्रजापति के महान् काव्य के
स्वरूप-विश्लेषण के माध्यम से मृत्युविजय का उद्घोष करने वाले क्रान्तिदर्शी
ऋषियों की तत्वभाषा ही इस देश की सांस्कृतिक कविता है, न कि अपने मानसिक उत्तालतरंगायित
भावुकतापूर्ण भावों में विभोर बनते हुए शब्दविन्यास कौशलमात्र प्रदर्शित कर देने
का नाम है कविता। मृत्युविजयसन्देश-वाहक क्रान्तिदर्शी सत्ता-वेदद्रष्टा-प्राज्ञ
महर्षि ही इस राष्ट्र के ‘राष्ट्रकवि’ माने जायेंगे। जिनकी कविता के द्वारा
सदा चिरन्तन-शाश्वत-सत्य का ही यशोगान होता रहता है। न कि युगधम्र्मानुसार बदलती
रहने वाली लोकभावुकताओं का अपनी लोकैषणा की पूर्ति के लिए समर्थन करते रहने वाले
गतानुगतिक शब्दाक्षरवर्णभावानुबन्धी कविगण। अथवा तो भगवान् बादरायण के मुखपंकज से
निःसृत आत्मबुद्धिमनः शरीरसमन्वयमूला भारतीय मौलिक संस्कृति की गुणगाथा का
विश्लेषण करने वाली पुराणगाथा ही इस देश की कविता मानी जायेगी। किंवा महामुनि
वाल्मीकि की कविता ही इस देश में ‘कविता’ रूप से सम्मानित होगी, जिसके द्वारा मर्यादापुरुषोत्तम भगवान्
राम के माध्यम से आर्ष ऋषिकाव्यात्मक भारतीय वैदिक सांस्कृतिक आचारपद्धतियों का ही
स्वरूप-विश्लेषण हुआ है। तभी तो लोकसाहित्यदृष्टि से महामुनि वाल्मीकि आदिकवि माने
गये हैं।
क्षमा
करेंगे हमें राष्ट्रपति महाभाग इस प्रासंगिक और सम्भवतः मूललक्ष्य से अतिक्रान्त
भी इस कविताप्रसंग के लिए। युगधर्माक्रान्ता सभा-समितियों के तात्कालिक अनुरंजन से
हमारी वेदाभ्यासजडमति सर्वथैव असंस्पृष्ट है। हम तो ऋषिप्रदिष्ट गुहानिहित-पथ के
पथिक बने रहते हुए यथामति स्वाध्यायनिष्ठा की ही उपासना में तल्लीन रहे हैं,
जहाँ वर्तमान
युग के लोकैषणामूलक व्यासंगों का संस्मरण भी निषिद्ध ही रहा है। आपका ध्यान देश की
इस विलुप्तप्राया ज्ञानविज्ञान परिपूर्णा सम्प्रदायवादनिरपेक्षा मानवमात्रोपकारिणी
ऋषिसंस्कृति की ओर आकर्षित हो जो कि भारत देश का वास्तविक सांस्कृतिक आयोजन माना
गया है, एकमात्र
इसी उद्देश्य से हम अप्रासंगिकरूप से भी अपने हृदयोद्गार व्यक्त करने की धृष्टता
कर रहे हैं। आज एक ऐसे स्थान में ऋषिप्रज्ञा का सन्देश उपस्थित होने जा रहा है,
जहाँ से सम्भवतः
ही क्यों, निश्चय
ही देश की सर्वस्वभूता इस आर्षसंस्कृति का समुद्धार सम्भव है।
इन
प्रासंगिक हृदयोद्गारों के अनन्तर पुनः वैश्वानराग्नि से अनुप्राणित जीवसर्ग की ओर
आपका ध्यान आकर्षित किया जा रहा है। ‘शृणोतु ग्रावाणः’ के सम्बन्ध से एकात्मक अग्निप्रधान
जड़जीवों का दिग्दर्शन कराया गया, जिन्हें ‘असंगजीव’ भी कहा जाता है जिनमें क्रिया, और ज्ञान अन्तःसुप्त हैं।
औषधि-वनस्पति-लता-गुल्म आदि जीवन द्वयात्मक जीव कहलाये हैं, जिनमें अर्थप्रधान वैश्वानर अग्नि के
साथ-साथ क्रियाप्रधान तैजस वायु का भी विकास है। अतएव इन्हें अन्तः सज्ञ मान लिया
गया है।
‘तस्माद्
रुदन्ति पादपाः, जिघ्रन्ति
पादपाः, हसन्ति
पादपाः, शृण्वन्ति
पादपाः (महाभारत)।
अन्तःसंज्ञा
भवन्त्येते सुखदुःख-समन्विताः’ (मनुः)।
इत्यादि
वचनों के अनुसार वृक्षादि अन्तः सज्ञ जीव स्वप्नदशा की भाँति चेतनवत् सभी
ऐन्द्रियक व्यापारों के अनुगामी बने रहते हैं त्वगिन्द्रिय के माध्यम से। इसी चेतन
धर्म के कारण हमारी संस्कृति- ‘औषधो त्रायस्व’ (हे औषधो आप हमारी रक्षा करें) इत्यादि
रूप से स्तुति कर रही है इनकी। निष्कारण वृक्षादि का काटना-छाँटना भी इसी आधार पर
निषिद्ध है। विशेषतः सायंकालवेला में वृक्षादि का स्पर्श भी निषिद्ध माना है यहाँ
की विज्ञानमूला संस्कृति ने। ‘शृणोतु ग्रावाणः- औषधो त्रायस्व’ कहने वाला एक भारतीय मानव चलता हुआ
प्राकृतिक लोष्ठ-पाषाणादि के ठोकर लगाता चलता है, वृक्ष-लता-गुल्मादि का उत्पीड़न करता
चलता है तो भूतप्राणविकम्पन की दृष्टि से यह भी उसका हिंसा कर्म ही माना गया है।
अवश्य ही इससे परम्परया स्वयं इसके भी प्राण विकम्पित हो जाते हैं, जिस विकल्पन का चर्मचक्षुओं से
साक्षात्कार सम्भव नहीं है। जड़-चेतनादि यच्चयावत् पदार्थों को तत्तपदार्थों के
स्वरूपानुपात से सुव्यवस्थित बनाये रखने वाला भारतीय मानव ही अहिंसाधर्म का
वास्तविक अनुगामी है, जिसके
आधार पर- ‘मा
कश्चिद्दुःखभाग्भवेत्’ सिद्धान्त
प्रतिष्ठित है। और यही है यहाँ का प्राणमूलक ‘अहिंसा’ सिद्धान्त, जिसका- ‘मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि’ से स्पष्टीकरण हुआ है। केवल भूतदृष्टि
पर ही अहिंसा विश्रान्त नहीं है। वृथाचेष्टा-वृथाकर्म-वृथागमन-हसन- शयन-भाषण-आदि
आदि सभी निरर्थक-अशास्त्रीयकल्पित-मनोऽनुबन्धी व्यासंग हिंसाकोटि में ही
अन्तर्भुक्त हैं, जिनका
काल्पनिक मानसिक अशास्त्रीय अहिंसावाद से कोई सम्बन्ध नहीं है, जैसा कि आज सत्य-अहिंसा-मानवता-आदि
शब्दों के व्यामोहनमात्र से राष्ट्रप्रज्ञा व्यामुग्ध बनी हुई है। प्रकृतिविरुद्ध,
आश्रमव्यवस्थाविरुद्ध
आचरणों से विक्षुब्ध बन जाने वाले प्राकृतिक प्राण निश्चयेन मानव के आध्यात्मिक
प्राणों को भी अस्तव्यस्त कर दिया करते हैं। यह प्राणदृष्टि ही ऋषिदृष्टि है,
जिसके आधार पर
सूर्य-चन्द्र-गगन-पवन- अनल-औषधि-वनस्पति-गौ-नक्षत्र-पृथिवी-आदि आदि का स्तवन हुआ
है। सौर ताप से शीत निवृत्त होता है, चन्द्रिका से ताप शान्त होता है, इत्यादि भूतदृष्टियाँ कदापि इस स्तवन
के मूल नहीं है, जैसाकि
वर्तमान युग के प्रतीच्य-प्राच्य तत्वविशोधकों ने इस सम्बन्ध में अनर्गल कल्पनाएँ
कर डाली हैं। प्राण-दृष्टिमूला देवोपासना से अनुप्राणित भारतीय दृष्टिकोण का कुछ
भी तो मर्म नहीं समझा है इन भूतविज्ञानवादी अभिनव विचारकों ने। अलमतिपल्लवितेन।
प्रकृतमनुसरामः।
अन्तः सज्ञ नामक द्वयात्मक औषधि-वनस्पत्यादि जीवों में अग्निमूलक अर्थ के साथ-साथ
वायुमूलक क्रियातत्व भी अभिव्यक्त है। तीसरा जीववर्ग है त्र्यात्मक, जिसे ‘ससज्ञजीव’ कहा गया है। वैश्वानर अग्नि, तैजस, वायु इनके साथ-साथ जिन जीवों में
प्राज्ञ आदित्य भी विकसित रहता है, वे ही ‘ससज्ञ’ कहलाये हैं, जिनके क्रमशः ‘कृमि-कीट-पक्षी-पशु-मनुष्य’ ये पाँच श्रेणिविभाग प्रसिद्ध हैं।
असज्ञ-अचेतन-जड़-लोप-पाषाणादि एकात्मक जीव, अन्तः सज्ञ-अर्द्धचेतन-उभयात्मक-औषधिवनस्पत्यादि
द्वयात्मक जीव, एवं
ससज्ञ-चेतन कृमिकीटादि त्र्यात्मक जीव, क्या इन तीन प्रधान वर्गों में ही जीवसर्ग
परिसमाप्त है। प्रश्न का जहाँ ‘अग्नि’ की दृष्टि से ‘हाँ’ समाधान होगा, वहाँ सोम की दृष्टि से इस सम्बन्ध में ‘ना’ ही कहा जायेगा। तीनों जीवसर्ग तो अग्नि-वायु-आदित्य
के त्र्यात्मकरूप वैश्वानर-तैजस-प्राज्ञ से अनुप्राणित रहते हुए अग्नित्रयी पर ही
परिसमाप्त हैं। अभी तो चान्द्रसोम और शेष हैं। इससे सम्बन्ध रखने वाला
चान्द्र-सौम्य-जीवसर्ग ही चैथा सर्ग है, जिसके क्रमशः अवान्तर
यक्ष-राक्षस-पिशाच-गन्धर्व-ऐन्द्र-प्राजापत्य पैत्र-ब्राह्म, ये आठ विवत्र्त माने गये हैं। ससज्ञ
पार्थिव जीवों में जहाँ 5 ज्ञानेन्द्रियाँ, 5 कर्मेन्द्रियाँ, 1 मन, यों 11 इन्द्रियाँ हैं, वहाँ आठ सिद्धि, नव तुष्टि रूप से चान्द्र जीवों में 28 इन्द्रियभाव हैं। असज्ञ, एवं अन्तः सज्ञ, दोनों पार्थिव जीवों का एकविध वर्ग मान
लिया गया है क्योंकि दोनों में तमोगुण का ही प्राधान्य है। यही ‘तमोविशाल’ एकविध पार्थिव भूतसर्ग है, जिसका पारिभाषिक नाम है- ‘स्तम्बसर्ग’। ससज्ञ नामक कृमिकीटादि पंचविध
पार्थिवसर्ग आन्तरिक्ष्य सर्ग मान लिया गया है, जो ‘रजोविशाल’ सर्ग है। एवं ससज्ञ ही यक्ष-राक्षसादि
आठ चान्द्र जीव दिव्य जीव मान लिए गये हैं, जिन्हें ‘सत्वविशाल’ कहा गया है। यों एकविध तमोविशाल,
पंचविध
रजोविशाला, एवं
अष्टविध सत्वविशाल भेद से पार्थिव-चान्द्र सम्बन्धी भूतसर्ग, किंवा जीवसर्ग चैदह श्रेणियों में
विभक्त हो रहा है, जैसाकि
सांख्यशास्त्र के- ‘चतुर्दशविधो
भूतसर्गः’ इस
वचन से स्पष्ट है। इन 14
भूतसर्गों में स्तम्ब नामक तमोविशाल एकविध सर्ग (जिसके अवान्तर असज्ञ तथा
अन्तःसज्ञ नामक दो विवर्त है), एवं क्रमि-कीट-पक्षी-पशु-मनुष्य-यह पंचविध सर्ग,
कुल 6 सर्ग तो ‘अग्निप्रधान जीवसर्ग है’, एवं यक्षादि ब्राह्मान्त अष्टविध
चान्द्रसर्ग ‘सोमप्रधान
जीवसर्ग है’।
यों अग्नि-वायु-आदित्य-रूप अग्नि, तथा अन्नात्मक सोम रूप द्वितीय अग्नीषोमावतार
से इनके महिमामण्डल के गर्भ में 14 प्रकार के अग्नीषोमात्मक जीवसर्ग प्रतिष्ठित
हो रहे हैं।
क्या
जीवसर्ग यहाँ परिसमाप्त है ? अवश्य। जिसे ‘प्राणिसर्ग’ कहा जाता है, जो प्राणवान् है, अतएव जो ‘भूतसर्ग’ नाम से प्रसिद्ध है, वह तो तथोपवर्णित वैश्वानराग्नित्रयी
एवं चान्द्रसोमात्मक चतुद्र्दशविध भूतसर्ग पर ही परिसमाप्त है।
अब
आगे जो सर्ग है, वह
भूतसर्ग नहीं, प्राणसर्ग
है, जिसका
सौर अग्नि, तथा
पारमेष्ठ्य साम नामक युग्म से सम्बद्ध है, जिसे हमने वैश्वानररूप पार्थिव लोकाग्नि,
तथा चान्द्र
अन्न सोम की प्रतिष्ठा बतलाया है। ‘त्रयस्त्रिंशद्वै सर्वे देवा’ के अनुसार सौर प्राणाग्नि अवान्तर
तैंतीस कोटि (विभागों) में विभक्त सौर देवप्राण हंै। सूय्र्य से ऊपर अवस्थित
परमेष्ठी में आप्य प्राण-वायव्य प्राण-सौम्य प्राण-ये तीन प्राण हैं। आत्मप्राण
असुर हैं, जिनके
अवान्तर 99
विभाग हैं, अर्थात्
देवप्राणों से तिगुने। वायव्य-प्राण गन्धर्व हैं, जिनके अवान्तर अंघारि-बम्मारि आदि अनेक
विवर्त हैं। सौम्यप्राण पितर हैं, जिनके आज्यपा-सोमपा-आदि अवान्तर सात विवर्त
हें। और यहाँ आकर ऋक्सामयजुरथर्वरूप प्रथमावताररूप अग्नीषोमयुग्म से सम्बन्ध रखने
वाला प्राणसर्ग समाप्त है।
क्या
परमेष्ठी पर प्राणसर्ग समाप्त हो गया ? नहीं, अभी एक प्राणसर्ग और शेष है, जिसे स्वायम्भुव सर्ग कहा गया है,
जिस मौलिक
प्राणाग्नि से अग्नीषोमरूप वेदात्मक प्रथमावतार हुआ है। ‘वामपलित’ नामक यह स्वायम्भुव मौलिक प्राण ही
मूलसर्ग है, जिसे
ऋषिसर्ग कहा गया है। वसिष्ठ-विश्वामित्र-भरद्वाज-अत्रि- अंगिरा-आदि आदि जो मानव
ऋषि नाम लोक में प्रसिद्ध हैं, वे नाम तत्वतः प्राणात्मक ऋषितत्वों के ही हैं।
क्या स्वरूप है इस ऋषितत्व का ? इस दुरधिगम्य प्रश्न का समाधान करते हुए मानव
महर्षि कहते हैं-
विरूपास
इद्ऋषयस्त इद्गम्भीरवेपसः ।
तेऽगिंरसः
सूनवस्ते अग्नेः परिजज्ञिरे ।।
-ऋक्संहिता
10।62।5।
विरूपासः
विविधरूपासः असंख्य विभेद हैं ऋषिप्राणों के, जिनके सम्बन्ध में यह
प्रश्नोत्तरविमर्श सुप्रसिद्ध है कि ‘जब कुछ न था, तो क्या था ? अर्थात् विश्वोत्पत्ति से पहिले क्या
तत्व था? श्रुति
ने उत्तर दिया, विश्व
से पहिले ‘असत्’
ही था। ‘असत्’ का अर्थ तो लोक में ‘अभाव’ होता है। क्या यह तात्पर्य है कि विश्व
से पूर्व कुछ भी न था ? नहीं।
वह असत् अभावार्थक नहीं है। अपितु भावार्थक है, तत्वात्मक है। तो पुनः जिज्ञासा हुई कि,
‘क्या स्वरूप था
उस असत् का ?’ श्रुति
ने उत्तर दिया, ‘ऋषि’
ही वह असत् तत्व
था। लीजिए, यह
तो इन्द्र की टीका बिड़ौजा हो पड़ी। अतएव प्रश्न स्वाभाविक था कि उस ऋषि का क्या
स्वरूप था। ? उत्तर
मिला, ‘प्राणतत्व
का ही नाम ऋषि था।’ यहाँ
आकर ‘असत्’
का कुछ अर्थ
उपलब्ध हुआ। प्राणवान् वस्तु ‘सत्’ कहलायी है। प्राण में क्योंकि प्राण नहीं रहता
इसी दृष्टि से ‘प्राण’
को ‘असत्’ कह दिया जाता है जिसका अर्थ है ‘विशुद्ध सत्’ भाव। इसीलिए अन्यत्र ‘सदेवेदमग्ने’ सोम्य असदासीत, कथमसत सज्जायेत’ इत्यादि रूप से- ‘हे सोम्य! वह असत् सत् ही था, यह कहा गया है।’ अब केवल एक प्रश्न शेष रह गया। इस
सद्रूप असत्प्राण को ‘ऋषि’
नाम से क्यों
व्यवहृत किया गया ? इसका
समाधान करती हुई श्रुति अन्त में कहती है कि ‘यह प्राणतत्व ही क्योंकि सृष्टिकामना
से प्रेरित होकर गतिशील बना, अतएव ‘रिषति-गच्छति-गतिशीलो भवति’ निर्वचन से इस प्राण का तात्विक नाम हो
गया, ‘ऋषि’। इसी सर्वादिकारणरूप मूल ऋषिप्राण के
इस चिरन्तन इतिहास का स्पष्टीकरण करती हुई श्रुति कहती है-
‘असद्वा
इदमग्र आसीत्। तदाहुः किं तदसदासीदिति ? ऋषयो वाव तदग्रेऽसदासीत्। के ते ऋषयः ?। प्राणा वा ऋषयः। ते यत् पुरा-अस्मात्
सर्वस्मात्-इदमिच्छन्तः श्रमेण-तपसा-अरिषन्-तस्मात्-ऋषयः’।
-शत.ब्रा.
6।1।1।1।
यह मौलिक
ऋषिप्राण एकर्षि-द्वधर्षि-त्र्यर्षि-सप्तर्षि-दशर्षि आदि आदि भेद से अनेक भागों
में विभक्त है। ये ऋषिप्राण अधिदैवत-अध्यात्म-अधि-भूत भेद से यत्र-तत्र विभिन्न
भावों से मूलाधार बने हुए हैं। उदाहरण के लिए ‘साकंज’ नामक आध्यात्मिक सप्तर्षिप्राण को ही
लक्ष्य बनाइये। हमारे शिरोमण्डल में दो कान, दो आँख, दो नासाछिद्र, एक मुखविवर ये सात विवर प्रत्यक्ष
द्रष्ट हैं। इनमें कर्ण-चक्षु-नासाछिद्र सयुक् हैं, अर्थात् जोड़ले हैं, साथ रहने वाले हैं, जबकि सातवाँ मुखविवर एकाकी ही है।
इनमें रहने वाले इन्द्रियप्राणों के आधारभूत मौलिक प्राण ही सप्तर्षि प्राण हैं,
जैसाकि निम्न
लिखित वेदमन्त्र से स्पष्ट है-
साकंजानां
सप्तथमाहुरेकजं षडिद्यमा ऋषयो देवजाः ।
तेषामिष्टानि
विहितानि धामशः स्थात्रे रेजन्ते विकृतानि रूपशः ।।
-ऋक्संहिता
1।164।15।
शिरःकपाल
क्या है? मानो
एक वैसा कटोरा है, जिसका
बुध्न-अर्थात् पैंदा तो ऊपर की ओर है, जो आठ कपालों से जुड़ा हुआ महाकपाल है, जिसे लोक-भाषा में ‘खोपड़ी’ कहा गया है। बिल इस कटोरे का आधा है।
औंधा है यह कटोरा, जिसमें
मानव की अध्यात्मसंस्था का सम्पूर्ण श्रीरूप सारभाग भरा हुआ है जिसे यज्ञभाषा में
अष्टाकपालावच्छिन्न- ‘पुरोडाश’
नामक हविद्रव्य
कहा गया है, एवं
जिसे ग्रन्थिबन्धन से विमुक्त करने के लिए ही ओरस पुत्र के द्वारा
प्राणोत्क्रमणानन्तर ‘कपालक्रिया’
नामकी एक
वैज्ञानिक प्रक्रिया प्रचलित है शवदाहकर्म में। यही पुरोडाश योगभाषा से सहस्रदलकमल,
चिकित्सा की
भाषा में मस्तिष्क एवं लोकभाषा में ‘भेजा’ कहलाया है। इसी रस से सम्पूर्ण ज्ञानेन्द्रियाँ
रसग्रहण करती हैं। ऐसे इस अर्वाग्बिल तथा ऊध्र्वबुध्न ‘चमस’ नामक शिर-कपालरूप कटोर के प्रान्त
भागात्मक तीर भागों पर ही पूर्वोपवर्णित सातांे आध्यात्मिक ऋषिप्राण यथास्थान
प्रतिष्ठित हैं, जिस
इस रहस्य का निम्नलिखित मन्त्र ने स्पष्टीकरण हुआ है-
अर्वाग्बिलश्चमस
ऊध्र्वबुध्नस्तस्मिन् यशो निहितं विश्वरूपम् ।
तस्यासत
ऋषयः सप्त तीरे वागष्टमी ब्रह्मणा सविदाना ।।
-शत.ब्रा.
14।5।2।5।
एक
आनुषंगिक विश्लेषण और। ज्ञानेन्द्रियों के आधारभूत कपालस्थित रसात्मक मस्तिष्क को
ही ‘श्रीः’
कहा गया है
जिसका परोक्षरूप है, ‘शिर’। अतएव निगममूलक आगमशास्त्र में
पशुमस्तक को ‘श्रीः’
कहा गया है। यह
यशोरूप श्रीरस अष्टाकपालरूप दृढ़तम शिर कपाल के वेष्टन से प्रजापति के द्वारा
सुगुप्त-परोक्ष बना हुआ है। अतएव भारतीय संस्कृति में शिरोवेष्टनभाव ही मांगलिक
माना गया है, जैसा
कि- ‘लोहितोष्णीषाः
ऋत्विजः प्रचरन्ति’ इत्यादि
वेदवचन से प्रमाणित है। सर्वांगशरीर-गुप्तेन्द्रियों को छोड़ कर भले ही नग्न रहे,
किन्तु मस्तक
उष्णीषादि से अवश्य ही वेष्टित रहना चाहिए, यही इस देश की ‘श्री’ मूला मांगलिक स्वस्त्ययनपरम्परा है।
नग्न शिर, उघाडा
माथा यहाँ अमंगलसूचक माना गया है। मांगलिक तिलक-विधान भी उघाड़े मस्तक पर अमांगलिक
बन जाया करता है। महान है हमारे देश का यह मांगलिक स्वस्त्यन कम्र्म, जिसकी सर्वप्रथम उपेक्षा की बंगाल ने,
जिसके आधार पर ‘भूखा बंगाली’ आभाणक प्रसिद्ध हो पड़ा। और तदनुपात से
आज तो इस सम्बन्ध में कुछ भी निवेदन करना वर्तमान सभ्यता से अनुप्राणित नग्न
मस्तकों को रुष्ट ही करना होगा। पठन-पाठन के आरम्भ में ‘श्रीः’ पत्रादि लेखनारम्भ में श्री सर्वत्र ‘श्री’ भाव का, यशोरसात्मक ऐश्वय्र्यभाव का उपक्रम ही
इस श्रीसम्पन्न देश का मांगलिक प्रतीक रहा है, जो दुर्भाग्यवश कल्पित साम्प्रदायिकता
के व्यामोहनाकर्षण से आज राष्ट्रीय प्रजा से परांगमुख ही बनता जा रहा है, अथवा तो बलपूर्वक बना दिया गया है।
प्रसंग
प्राण का चल रहा है। सचमुच ‘अनन्ता हि मे प्राणाः’। प्राणोदान-व्यानसमानापान-नामक पाँच
प्राणों में से मध्यस्थ व्यानप्राण के ही अनन्त विभूतिभेद हो जाते हैं। 72 सहस्र नाडियों में विभक्त व्यान का
आगे जाकर अनन्त विस्तार हो जाता है। देखिए-
‘शतं
चैका हृदयस्य नाड्यः तासां मूद्र्धानमभिनिःसृतैका।
तयोध्र्वमायन्नमृतत्वमेति
विश्वगंन्या उत्क्रमणे भवन्ति’ ।।
-छान्दोग्य
उपनिषत् 8।6।56।
‘हिता
नाम नाड्यः-द्वासप्ततिसहस्राणि हृदयात् पुरीततमभिप्रतिष्ठन्ते। ताभिः प्रत्यवसृप्य
पुरीतति शेते’।।
-वृहदा.
उप. 2।1।19।
‘हृदि
ह्येष आत्मा। अत्रैतदेकशतं नाडीनां, तासां शतं शतमेकैकस्याम् ।
द्वासप्ततिद्र्वासप्ततिः
प्रतिशखानाडीसहस्राणि भविन्त। आसु व्यानश्चरति’।
-प्रश्नोपनिषत्
3।6।
इत्थंभूत
स्वायम्भुव तत्वात्मक गत्यात्मक मौलिक प्राणों का ही नाम है- ‘ऋषि’। जिस मानव श्रेष्ठ ने तपोबल-अध्यवसाय
से सर्वप्रथम जिस प्राण का परीक्षण के द्वारा साक्षात्कार किया, वह मानव ‘यशोनाम’ दृष्टया उसी ऋषिप्राण के नाम से
प्रसिद्ध हो गया। सचमुच अनन्त है ये ऋषिप्राण, जिनकी यह अनन्तता-अविज्ञेयता भी
सुनिश्चित ही बनी हुई है। ऐसा कोई भी सृष्टितत्व नहीं है, जिसे ऋषिप्रज्ञा ने अग्नीषोमात्मिका
यज्ञविद्या के माध्यम से न पहिचान लिया हो। जो जानने का था, वह जाना जा चुका है। एवं जो विश्वातीत
नहीं ही जानने का है, वह
कदापि नहीं ही जाना जायेगा। इसी आधार पर तो यहाँ के ऋषि के लिए ‘विदितवेदितव्याः अधिगतयथातथ्या’
इत्यादि
उपाधियाँ निश्चित हुई हैं। ध्यान रहे, यह प्राणी की भाषा नहीं है, अपितु प्राण की भाषा है। अनन्त की
अनन्तभावगभीरा अनन्तभाषा है। परांगमुख बन गये हैं आज हम इस प्राणमाया से। अतएव
हमें आज तो इसके उच्चारणमात्र का भी अधिकार नहीं है। अतएव लज्जित हैं वैदिक
विज्ञान के सम्बन्ध में आज हम यत्किंचित भी निवेदन करते हुए। इसीलिए तो
प्रचारात्मिका प्रवृत्ति के लिए हमने अपने आपको अयोग्य ही अनुभूत किया है सदा से
ही। आज यहाँ तो उपस्थित हो पड़ने के आकर्षण का एकमात्र इस अनुबन्ध से हम संवरण न कर
सके कि सम्भव है राष्ट्रपति महाभाग की संस्कृतिनिष्ठा-प्रेरणा से इस विलुप्तप्रायः
उस संस्कृति का प्रचार सफल बन सके, जो एतद्देशीया आर्षसंस्कृति न केवल एतद्देशीय
मानव के लिए ही, अपितु
सम्पूर्ण भूपिण्ड के मानवमात्र के उद्बोधन का कारण मानी गयी है। संस्कृतिशिक्षक
एतद्देशीय द्विजाति मानव के माध्यम से। निश्चय ही वैदिक ज्ञानविज्ञानमूला
आर्षसंस्कृतिरूपा हिन्दूसंस्कृति का किसी भी सीमित सम्प्रदायवादात्मक मतवाद से कोई
सम्बन्ध नहीं है। शिरः कपालानुगत सप्तर्षिप्राण की सत्ता कौन नहीं मानेगा ?
तन्मूला
अग्नीषोमविद्या के सम्मुख कौन अवनतशिरस्क न बन जाएगा ?, नाक्षत्रिक आख्यानों से कौन शिक्षा
ग्रहण न करना चाहेगा ? तभी
तो मानवधर्मप्रवर्तक राजर्षि मनु ने मुक्तहृदय से यहाँ के मुक्तहृदय द्विजाति के
लिए यह कहने में यत्किंचिंत भी तो संकोच नहीं किया कि -
एतद्देशप्रसूतस्य
सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं
स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ।।
-मनु
‘स्वल्पारम्भाः
क्षेमकरा’ यह
यहाँ की चिरन्तन पद्धति है। अतः दो शब्दों में अग्नीषोमविद्या का दिग्दर्शन कराते
हुए आज का वक्तव्य उपरत हो रहा है। स्वायम्भुव मौलिक प्राणात्मक अनन्तविध
ऋषिप्राणसर्ग, तदाधारेण
प्रवृत पारमेष्ठ्य आप्यप्राणात्मक नवतीर्नवविध (99) असुरप्राणसर्ग, वायव्यप्राणात्मक सप्तविंशतिविध (27)
गन्धर्वप्राणसर्ग,
सौम्यप्राणात्मक
सप्तविध (7) पितृप्राणसर्ग,
त्रयस्त्रिं-शद्विध
(33) सौर
देवप्राणसर्ग, इन
ऋषि-असुर-गन्धर्व-पितर-देव-रूप प्राणसर्गों की समष्टिरूप
ऋक्-यजु-सामरूप-प्राण-अग्नि एव अथर्वरूप प्राणसोम, इस मौलिक वेदात्मक प्रथम अग्नीषोमयुग्म
के आधार पर अन्तर्यामात्मक चयनयज्ञ से अग्नि-वायु-आदित्यरूप पार्थिव अग्नित्रयी
तथा चान्द्रसोम, इस
द्वितीय अग्नी-षोमयुग्म का प्रादुर्भाव हुआ। इसके गर्भ में इसके ही
वैश्वानर-तैजस-प्राज्ञ-रूप-अग्नि-वायु-आदित्य-भागों के समवन्यतारतम्य से पार्थिव
अग्निसोममय ‘प्राणी-सर्ग’
का उदय हुआ,
जिसके अवान्तर 14 विवर्तों का पूर्व में दिग्दर्शन किया
जा चुका है। वैश्वानराग्नि के आधिदेविकरूप ही विराट्-हिरण्यगर्भ सर्वज्ञ कहलाये
हैं। इनकी समष्टि ही सम्वत्सर है। इस सम्वत्सर से सम्बन्ध रखने वाले भूतात्मक,
अतएव प्रत्यक्ष
दृष्ट भूतानि तथा भूतसोम का ही अब हमें दो शब्दों में दिग्दर्शन करा देना है।
जिस
सम्वत्सर के आधार पर अग्नीषोमविद्या प्रतिष्ठित है, वह सौर-चन्द्र-पार्थिव-रूप से तीन
भागों में विभक्त माना गया है। यहाँ हम तीनों को एक मानते हुए पार्थिव-सम्वत्सर के
माध्यम से ही भूताग्नि तथा भूतसोम का समन्वय करेंगे। शब्द है वास्तव में ‘सर्वत्सर’, जो परोक्षभाषा में ‘सम्वत्सर’ कहलाया है। भूपिण्ड सूर्य को केन्द्र
मानकर क्रान्तिवृत्त पर घूम रहा है। त्रिकेन्द्रात्मक वृत्त वत्र्तुल (गोल) न रहकर
अण्डाकार बन जाया करता है जो कि पुराण परिभाषा में ‘ब्रह्माण्ड’ तथा ज्योतिष-परिभाषा में ‘दीर्घवृत्त’ कहलाया है। क्रान्तिवृत्त
त्रिकेन्द्रात्मक बनता हुआ दीर्घवृत्तात्मक अण्डभाव में ही परिणत हो रहा है। सूर्य
अपनी केन्द्र शक्ति से भूपिण्ड को निरन्तर जहाँ अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं,
वहाँ भूपिण्ड
अपनी केन्द्र शक्ति से सूर्याकर्षण में प्रवृत्त है। इसी पारस्परिक आकर्षण को ‘प्रयुता संयोग’ कहा है वेद ने। इस समानाकर्षण से न तो
सूर्यपिण्ड भूपिण्ड को आत्मसात् करने पाता एवं न भूपिण्ड सूर्यपिण्ड को। सौर
सावित्राग्नि यदि प्राणदपानत्-धर्मा है, तो तत्प्रवग्र्य-तत्-उपग्रहभूत भोम गायत्राग्नि
भी प्राणन-अपानन से युक्त है, जैसा कि ‘एति च प्रेति च अन्वाह’ रूप से पूर्व के सोमापहरणाख्यान में
स्पष्ट किया जा चुका है। दोनों ग्रहों के प्राणदपानल्लक्षण इस समान
आघात-प्रत्याघात से भूपिण्ड छंदगति से एक नियत मार्ग पर आरूढ़ होता हुआ परिभ्रमणशील
बन रहा है। क्या तात्पर्य है इस छंदगति का ? इसी प्रश्न का रहस्यपूर्ण समाधान करते
हुए भगवान् याज्ञवल्क्य कहते हैं-
‘देवाश्च
वा असुराश्च उभये प्राजापत्याः पस्पृधिरे। तान्त्सर्द्धमानान् गायत्री अन्तरा
तस्थौ। या वै सा गायत्री आसीत्, इयं वै सा पृथिवी। इयं हैव तदन्तरा तस्थौ।
अग्निर्वैदेवानां दूत आस। सा देवानुपावत्र्तत’।
-शतपथ
ब्रा. 1।4।1।34।
उक्त
वचन पार्थिव परिभ्रमण से सम्बन्ध रखने वाले क्रान्तिवृत्त की कुटिलगति का ही
विश्लेषण कर रहा है। वृत्त का स्वरूप-निर्माण ही तब होता है, जबकि वृत्त की प्रतिबिन्दु कुटिलभाव से
अग्रगामिनी बनती है। भूपिण्ड स्वप्राण से सीधा जाना चाहता है। सूर्य अपने आकर्षण
से इसे अपनी ओर किसी एक बिन्दु के द्वारा खींचता है। यहाँ से पुनः भूपिण्ड सीधा
जाना चाहता है। पुनः सूर्य इसे वक्रित करता है। इस धारावाहिक चक्रमण से गतिमार्ग
की प्रतिबिन्दु कुटिल बन जाती है। यही सर्वत व्याप्ता त्सरता, अर्थात् कुटिलता, किंवा छद्मगतित्व है, जिससे क्रान्तिवृत्त का स्वरूप सम्पन्न
हुआ है। ‘सर्वतत्सरन्
गच्छति भूपिण्डः स्वपरिभ्रमणमार्गे’ इस निर्वचन से ही परिभ्रमणात्मक क्रान्तिवृत्त ‘सर्वत्सर’ कहलाया है जो कि परोक्षभाषा में ‘सम्वत्सर’ कहलाया है। देखिए।
‘स
प्रजापतिः सर्वत्सरोऽभवत्। सर्वत्सरो ह वै नामैतत् यत् सम्वत्सरः।’ (शत.ब्रा. 11।5।6।12।)
ज्योतिश्चक्रात्मक
खगोलीय वृत्त के 360
अंशों में से उत्तर-दक्षिण ध्रुव-प्रदेशात्मक अर्द्धखगोल का परिमाण षड्भान्तर माना
गया है, अर्थात्
180
अंशात्मक। इसके मध्य में जो पूर्वापरवृत्त है, वह है बृहतीछन्द, जो ज्यौतिष में विष्वद्वृत्त कहलाया
है। इससे ठीक 90
अंश पर उत्तर में उत्तर ध्रुव है, दक्षिण में 90 अंश पर दक्षिण ध्रुव है। इसी आधार पर
जैसे क्रान्तिवृत्तीय पृष्ठीकेन्द्र ‘कदम्ब’ कहलाया है, वैसे विष्वद्वृत्तीय पृष्ठीकेन्द्र
ध्रुव माना गया है, मध्यस्थ
विष्णद्वृत्त से 24
अंश उत्तर, 24
अंश दक्षिण, यह 48 अंश का परिसरात्मक जो मण्डल है,
उसीका नाम है ‘सम्वत्सर’, जिसके वयोनाध तथा वयरूप दो स्वरूप माने
गए हैं। छन्दोरूप सम्वत्सर वयोनाध सम्वत्सर है, यही भातिसिद्ध कालात्मक सम्वत्सर है
एवं इस छन्द से छन्दित सीमित वस्तुस्वरूपात्मक सम्वत्सर वय है, यही सत्तासिद्ध अग्न्यात्मक सम्वत्सर
है। अड़तालीसवें अंश की परिधि से समन्वित वृत्त ही वह क्रान्तिवृत्त है, जिस पर भूपिण्ड घूम रहा है। यह है
सम्वत्सर की संक्षिप्त स्वरूपदिशा। इसी के आधार पर हमें अग्न्यात्मक सत्तासिद्ध
सम्वत्सर का समन्वय करना है एवं तद्द्वारा सम्वत्सरमूलक अग्नि-सोम भावों का।
सत्याग्नि
तथा सत्य सोम से सृष्टि नहीं होती क्योंकि वह तो स्रष्टा का ब्रह्मौदन बना रहता
है। सूर्य-भूपिण्ड आदि सत्याग्निपिण्ड हैं, चन्द्रमा, शुक्र आदि सत्यसोमपिण्ड हैं। इनसे
प्रवग्र्यरूप से पृथक होने वाले अग्नि सोम ही ऋत कहलाये हैं। एवं ‘उच्छिष्टाज्जाज्ञिरे सर्वम्’ इस अथर्वसिद्धान्त के अनुसार
ऋताग्निसोम से ही प्रजोत्पत्ति होती है। कालात्मक खगोलीय सम्वत्सरमण्डल के उत्तर
भाग में ऋतसोम प्रतिष्ठित है, जो निरन्तर दक्षिण की ओर जा रहा है। एवमेव
दक्षिण भाग में ऋताग्नि प्रतिष्ठित है, जो निरन्तर उत्तर की ओर आ रहा है। इस
गमनागमन-प्रक्रिया के द्वारा ऋताग्नि में ऋतसोम की निरन्तर आहुति होती रहती है।
इसी आहुतिकर्म का नाम है यज्ञ, जो कि- ‘सम्वत्सरयज्ञ’ कहलाया है। यही पार्थिव प्रजासर्ग का
उपादान बनता है। अतएव सम्वत्सरयज्ञ को ‘प्रजापति’ कह दिया जाता है। ऋताग्नि का आगमन
दक्षिण से होता है। अतएव कृषि-अन्न का परिपाक दक्षिण से ही आरम्भ है। अतएव भारतीय
कृषक परिपक्व अन्न को दक्षिण से ही काटना आरम्भ करता है।
ऋत
अग्नि में ऋत सोम की आहुति होने से जो एक अग्निषोमात्मक सांयौगिक अपूर्व भाव
उत्पन्न होता है, उसे
ही ‘ऋतु’
कहा गया है।
लोकानुबन्ध से जहाँ सम्वत्सर में 6 ऋतुएँ मानी जाती हैं, वहाँ वैज्ञानिक यज्ञानुबन्ध से पाँच ही
ऋतुएँ हैं। अतएव सम्वत्सरयज्ञ ‘पाँच’ अर्थात् पंचावयव कहलाया है। पंचप्राण-पंचभूत-
पंचज्ञानेन्द्रियाँ-पंचकर्मेन्द्रियाँ-पंचांगुलि आदि आदि समस्त पंचभाव
सम्वत्सरयज्ञ की पंचावयवा ऋतु से ही अनुप्राणित हैं। ‘हेमन्तशिशिरयो समासेन’ रूप से हेमन्त और शिशिर-दोनों को एक
शीतऋतु मानकर पाँच ऋतुएँ मान ली गयी हैं। प्रत्येक ऋतु 72-72 दिनों में विभक्त है। लोक में भी
राजस्थान की प्रान्तीय भाषा के ‘पून्यूँ पड़वा टाले, तो दिन वहत्तर गाले’ इस आभाणक से वैदिक पंचर्तुस्वरूप
सुपरिचित बना हुआ है। 16-40-16-इस विभाजन से 72 दिन की प्रत्येक ऋतु
प्रातःसवन-माध्यन्दिनसवन-सायंसवन-रूपा तीन यज्ञप्रक्रियाओं से क्रमशः
बालावस्था-युवावस्था-वृद्धावस्था- इन तीन अवस्थाओं में अपना भोग करती है। मध्य की 40 दिन की युवावस्था ही हमारे यहाँ ‘चिल्ला’ कहलाया है। क्या अर्थ है
सम्वत्सरयज्ञस्वरूप सम्पादिका वसन्तादि ऋतुओं का, इस प्रश्न का समन्वय भी आरम्भ की
शब्दार्थरहस्यमर्यादा के द्वारा ही कर लीजिए।
मान
लीजिए-अभी अत्यन्त शीत का प्रकोप है। सम्वत्सर अग्नि से विहीन बन रहा है। सोमात्मक
शीततत्व के चरम विकास के अनन्तर अग्नि का जन्म हो पड़ता हैं। सद्यः प्रसूत अग्निकण
शीतभावापन्न सोमपटल पर बसने लगते हैं। यही पहिली ‘वसन्त’ ऋतु है, जिसका निर्वचन है- ‘यस्मिन् काले अग्निकणाः पदार्थेषु
वसन्तो-निवसन्तो भवन्ति, स कालः वसन्तः’। आगे चलकर अग्नि ने अधिक बल से
पदार्थों को ग्रहण किया। ‘यस्मिन् काले अग्निकण पदार्थान् गृह्णन्ति,
स कालः ग्रीष्म’
निर्वचन से वही
काल ‘ग्रीष्म’
कहलाया। अग्नि
और प्रवृद्ध हुआ, निःसीम
बना, मानो
जलाने ही लग पड़ा पदार्थों को। यही ‘नितरां दहत्यग्निः पदार्थान्’- निर्वचन से ‘निदाघ’ भी कहलाने लग पड़ा। निदाघ की चरमोवस्था
ने अग्निविकास को परावर्तित कर दिया, संकोचावस्था आरम्भ हो पड़ी। यही संकोचावस्था ‘वर्षा’ कहलायी। ‘अतिशयेन उरु-अग्निः-यस्मिन्
काले-निर्वचन से अग्नि का ‘उरु’ भाव ही वर्षा कहलाया। पाणिनीय व्याकरण ने उरु
को ‘वर्ष’
आदेश कर दिया।
और यों ‘उरु’
शब्द ‘वर्ष’ रूप में परिणत हो गया। यों अग्नि ही
अपने क्रमिक उद्ग्राम-चढ़ाव-से वसन्त-ग्रीष्म-वर्षा-इन तीन ऋतुओं में परिणत हो गया,
जिनमें वसन्त
बना अग्नि का उपक्रमकाल, ग्रीष्म बना मध्यकाल, वर्षा बना उपसंहारकाल। उपक्रम ही
आधानकाल था शान्त अग्नि का, मध्य ही प्रचण्ड काल तथा उग्र अग्नि का,
अवसान ही
गुप्तकाल था अन्तर्मुख अग्नि का। इसी आधार पर शान्त-उग्र-अन्तर्मुख ब्राह्मण-
क्षत्रिय-वैश्य के लिए वैधयज्ञ में वसन्त-ग्रीष्म-एवं वर्षानुगत शरत्
अग्न्याधान-काल माने गये, जैसाकि-‘वसन्ते ब्राह्मण-ग्रीष्मे राजन्यः शरदि
वैश्यः अग्नीनादधीत’ इत्यादि
से स्पष्ट है।
अग्नि
की तीसरी वर्षा ऋतु को सम्वत्सरवाचक ‘वर्ष’ शब्द से क्यों व्यवहृत किया गया, यह प्रश्नोत्थान कर श्रुति ने उत्तर
दिया, जब
पुरवाई हवा चलती है तो वर्षाकाल वसन्त की छटा से, उष्मा के वेग से यही ग्रीष्म की छटा से,
पानी बरसने के
अनन्तर यही शरत् की छटा से, एवं अत्यन्त पानी बरसने के अनन्तर शीत की छटा
से यह वर्षाऋतु युक्त हो जाती है। स्वयं वर्षा तो यह है ही। इस प्रकार-‘वर्षात्वेव सर्वऋतव’ रूप से क्योंकि वर्षाऋतु में सब ऋतुओं
का भोग हो रहा है, अतएव
सम्वत्सर वाचक वर्ष नाम से यह ऋतु प्रसिद्ध हो पड़ी है। अपि च वर्षाऋतु में यदि
वर्षा न हो, तो
सम्पूर्ण वर्ष ही निस्तत्व बन जाय कृषि-अन्न के अभाव में। वर्ष का वर्षत्व क्योंकि
वर्षा पर ही अवलम्बित है इसलिए भी इस ऋतु को ‘वर्ष’ नाम से व्यवहृत करना प्रकृतिसिद्ध है।
क्योंकि वर्षाऋतु में सम्पूर्ण ऋतुओं का भोग है। अतएव भारतीय शास्त्रीय
संगीताचार्यों ने वर्षाऋतु में सम्पूर्ण ऋतुओं के रागों का गान विहित मान लिया है।
अग्निचर्चा
समाप्त हुई। अब सोम को लक्ष्य बनाइए। जिस अनुपात से वसन्त से अग्निकण उपक्रान्त
बने थे, उसी
अनुपात से अब अग्निकण शीर्ण होने लगे। ‘यस्मिन् काले-अग्निकणाः शीर्णा भवन्ति-स कालः’
ही ‘शरत्’ कहलाया। अग्निकण और हीन बने और सर्दी
बढ़ी। अतएव ‘यस्मिन्
काले अग्निकणा हीनतां गता भवन्ति, स कालः’ ही ‘हेमन्त’ कहलाया। अन्ततो-गत्वा अग्निकण सर्वथा
शीर्ण हो गये, शीतप्रवर्तक
सोम का ही प्राधान्य रह गया। यही ‘पुन पुनरतिशयेन शीर्णा-अग्निकणा-स कालः’
ही ‘शिशिर’ कहलाया। और यहाँ आकर अग्नि का
निग्राम-उतार-समाप्त हुआ। वसन्त से अग्नि का जन्म, शरत् से सोम का जन्म। वर्षा पर अग्नि
की समाप्ति, शिशिर
पर सोम की समाप्ति। अग्नि की चरम विकासावस्था की ही सोम में परिणति, सोम की चरम संकोचावस्था की ही अग्नि
में परिणति। अग्निसोम के इस परिवर्तन से ही ऋतुओं का जन्म। ऋतुओं से ही
सम्वत्सरयज्ञ की स्वरूपस्थिति एवं यही ‘अग्नीषोमात्मकं जगत्’ का संक्षिप्त स्वरूप-निदर्शन, जिसके द्वारा सम्पूर्ण जगत् का संचालन
हो रहा है।
अग्नीषोमात्मक
सम्वत्सर की इस व्याप्ति का दाम्पत्यरूप से साक्षात्कार भी कर लीजिए। आप सूर्य की
ओर मुख करके खड़े हो जाइए। आपका दक्षिणभाग दक्षिण दिशा से तथा वामभाग उत्तर दिशा से
अनुगत रहेगा। दक्षिण भाग दक्षिण से उत्तर की ओर आने वाले ऋताग्नि से अग्निप्रधान
बना रहेगा, वामभाग
उत्तर से दक्षिण की ओर आने वाले ऋतसोम से सोमप्रधान बना रहेगा। यों केवल आपके एक
ही शरीर में अग्नि और सोम, दोनों का भोग अनुप्राणित रहेगा। अग्नि ही
पुरुषभाव है, सोम
ही स्त्रीभाव है। अतएव आपका अग्निप्रधान दक्षिणांग पुरुषभावप्रधान माना जाएगा।
सोमप्रधान वामांग स्त्रीभावप्रधान माना जाएगा, जिसके आधार पर वैज्ञानिक तत्वज्ञ
भारतवर्ष की शिवशक्तिसमन्विता अर्द्धनारीश्वरोपासना प्रतिष्ठित है।
अब
दाम्पत्यरूप से अग्नि-सोम का समन्वय कीजिए। मानव अग्निप्राण-प्रधान है, अतएव पुरुष ‘आग्नेय’ माना गया है। मानवी सोमप्राणप्रधाना है,
अतएव स्त्री ‘सौम्या’ मानी गयी है। दोनों अग्नीषोमात्मक
सम्वत्सर मण्डलरूप खगोल के ही मानो अर्द्धवृगलात्मक दो ब्रह्माण्ड कटाह हैं,
जिन दोनों के
दाम्पत्य से ही आध्यात्मिक सम्वत्सर का स्वरूप निष्पन्न होता है। जिस इस
दाम्पत्यरूप से ही पुरुष के सौम्य शुक्र रूप सोम के, स्त्री के शोणितरूप अग्नि के यजन से,
इस
शुक्रशोणितात्मक सोमाग्नियज्ञ से ही प्रजोत्पत्ति का सप्तपुरुष-पर्यन्त वितान होता
है। यही तो इस दाम्पत्य का सम्वत्सर-प्रतिमानत्व है। अतएव ऋषि ने पुरुष को
सम्वत्सर की ही प्रतिमा माना है।
सम्वत्सर
के मध्य में जो विष्वद्वृत्त है, वही इस दाम्पत्य आध्यात्मिक सम्वत्सर में
मेरुदण्ड है, जिसे
लोक में ‘रीढ
की हड्डी’ कहा
गया है। उस अधिदैवत सम्वत्सर के विष्वद्वृत्तरूप मेरुदण्ड से दक्षिणोत्तर व्याप्त 48 अंशात्मक परिसर तत्वतः 24 अंश पर ही परिसमाप्त हैं। ये 24 अंश ही मानव और मानवी के 24-24 पर्शु हो जाते हैं। दाम्पत्य के
समन्वय से पूरे 48
पर्शु हो जाते हैं। मानवशरीर में भी 24 ही पंसलियाँ हैं, एवं मानवी के शरीर में भी 24 ही पंसलियाँ है। सम्वत्सरयज्ञ में
सूर्यस्तम्भ रूप है तो इस आध्यात्मिक सम्वत्सरयज्ञ में मस्तकभाग रूप है, जिसमें मानव-मानवी के अधोभागरूप पशव्य
चितिलक्षण भूत-पशु-भाग आबद्ध हैं। निष्कर्षतः जैसा जो कुछ उस आधिदैविक सम्वत्सर
में है, ठीक
वैसा ही इस दाम्पत्यरूप आध्यात्मिक सम्वत्सर में प्रतिष्ठित है। इसी आधार पर ‘पुरुषो वै यज्ञ’- ‘यज्ञो वै पुरुषः’ इत्यादि सिद्धान्त व्यवस्थित हुए हैं।
सम्वत्सरमूलक
अग्नि और सोम, दोनों
सयुक्सखा हैं, साथ
रहने वाले अभिन्न मित्र हैं। तात्पर्य, विकासशील अग्नि विकास की चरम सीमा पर पहुँच कर
सोमरूप में परिणत हो जाती है, संकोचशील सोम संकोच की चरम सीमा पर पहुँच कर
अग्निरूप में परिणत हो जाते हैं। अग्नि अन्नाद है, भोक्ता है। सोम अन्न है, भोग्य है। अग्नि कभी अन्नाद बन कर
भोक्ता है, तो
यही सोमरूप में परिणत होकर कभी भोग्य भी बन जाता है। एवमेव भोग्य सोम अग्निरूप में
परिणत होकर भोक्ता भी बन जाता है। इस प्रकार अग्नि-सोम के अवस्था-परिवर्तन तारतम्य
से अग्नीषोमात्मक इस विश्व में सभी अन्न हैं, सभी अन्नाद हैं। सभी भोक्ता हैं,
सभी भोग्य हैं।
इसी आधार पर ‘सर्वमिदमन्नाद,
सर्वमिदमन्नम्’
यह सिद्धान्त
स्थापित हुआ है। वेदमहर्षि ने इस मन्त्र के द्वारा अग्नीषोमात्मक इसी
अन्नान्नादभाव का रहस्यपूर्ण भाषा में स्पष्टीकरण किया है-
अहमस्मि
प्रथमजा ऋतस्य पूर्वं देवेभ्योऽमृतस्य नाम ।
यो
मा ददाति स इ देव भावदहमन्नमन्नमदन्तमस्मि ।।
यह
सर्वथा सर्वात्मना अवधोय है कि पूर्वोपवर्णित ‘अग्नीषोम’ युग्म का स्वरूप उस सम्वत्सर में ही
प्रतिष्ठित है जो तत्वतः ‘सर्वत्सर’ है। कुटिलगति-भावापन्न क्रान्तिवृत्त
ही सम्वत्सरचक्र है, जिस
इत्थंभूत वृत्त के गर्भ में ही अग्नि और सोम की प्रतिष्ठा सुरक्षित है। ऋजुभाव तो
आत्मा का धर्म है, विश्वधर्म
नहीं। जगत् तो अग्नीषोमात्मक बहिर्जगत् का स्वरूपसंरक्षण छùगतिलक्षण सर्वत्सररूप सम्वत्सर पर ही
अवलम्बित है।
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