वैदिक अवतारवाद का वैज्ञानिक विश्लेषण
भगवद्गीता 4.7 में
श्रीकृष्ण जी ने कहा है -
"यदा यदा ही धर्मस्य
ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य
तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।"
जब जब धर्म का ग्लानिः (बल
का नाश, रोग) होता है, अधर्म का अभ्युत्थान (बृद्धि) होता है, तब तब मैं ही अपने को (साकार रूप से)
सृजन (सृ॒जँ॒ विस॒र्गे - प्रकट) करता हुँ (पृथ्वी पर अवतार लेता हुं)। निराकार का
यही प्रकटीकरण को अवतरण कहते हैं ।
अवतार शव्द अव उपसर्ग
पूर्वक तॄ प्लवनतर॒णयोः॑ धातु से करणे घञ् प्रयोग से वना है, जिसका सामान्य अर्थ
अवतरण कहा जाता है । अवतरण शव्द का अर्थ सोपानपद्धति, प्रस्तावना, आभास,
उपक्रमणिका आदि है – यथा शान्तिशतक में कहा गया है – दूरे गुरुप्रथितवस्तुकथावतारः
। देवताओं का, विशेषरूपसे बिष्णु का, मूलरूपसे भिन्नरूप में पृथिवी में अवतरणको भी
अवतार कहाजाता है । यह
उस निराकार बिष्णुतत्त्व का आंशिकसाकार प्रकटीकरण है । अवतार अवतरण करनेवाला चैतन्य का
साकार रूप । जो साकारचैतन्य चरमअशान्त प्राकृतिक परिवेष को, तथा उसी कारण से
सन्तापित दुःखीजनों को, तारण करने के लिये जनलोक (galaxy) से पृथ्वीलोकपर अवतरित होते हैं, उन्हे अवतार कहते हैं । अवतार शव्द अनुगम
सम्बन्धी है – अनेकार्थवाची है, जैसा कि निम्न उदाहरण से स्पष्ट हो जायेगा ।
वैदिकमन्त्र के अभाव से
पाञ्चरात्र पद्धति में पुजा किया जाता है – जामदग्न्यस्मृतिः । पाञ्चरात्र मत में
सकलकल्याणगुण सम्पन्न परमकारुणिक भक्तवत्सल ब्रह्मस्वरूप जीवनियन्ता पुरुषोत्तम
भगवान वासुदेव उपासकों के योग्यतानुसार फलदान के लिये लीलावश में अर्च्चा, विभव,
व्यूह, सूक्ष्म तथा अन्तर्यामी भेद से पञ्चस्वरूप में अवतरित होते हैं । प्रतिमादि
देवतास्वरूप अर्च्चा है । साधारण मनुष्यों के प्रति करुणापरवश हो कर
सच्चिदानन्दब्रह्म प्रतिमा रूपमें अवतरित हो कर अर्च्चाग्रहणपूर्वक भक्तों का
कल्याण करते हैं । राम, कृष्ण आदि अवतार विभव संज्ञक है । वह स्वशक्तिविभव से
दुष्टदमन तथा शिष्टपालन करते हैं । व्युहाकारे विच्छुरित उन अवतारों के कला व्युहसंज्ञक
। शाङ्ख्यायनब्राह्मणम् के चतुष्टयं वा इदं सर्वं के अनुसार वासुदेव (ईश्वरपुरुष)
से शङ्कर्षण (जीव), उनसे प्रद्युम्न (मन), उनसे अनिरुद्ध (अहङ्कार) क्रम से वासुदेवका
चतुर्व्युह है । अन्य देवताओं का भी तद्रूप है । सम्पूर्ण सर्वगुणसम्पन्न
परम्ब्रह्म सूक्ष्म नामधेय । सभी जीवों के अन्तरमें रहने वाला प्रेरकब्रह्मको
अन्तर्यामी कहते हैं ।
दशावतार का अन्य एक अर्थ
है जीवों का क्रमविकाश । कूटस्थचैतन्य का क्रमिकविकाश को उनका अवतरण कहा जाता है ।
पुरुषसूक्त के अनुसार विराट् पुरुष से सम्पूर्ण सृष्टि का उत्पत्ति हुआ है । “दशाक्षरा वै विराट्” – इस श्रुतिवाक्य
के अनुसार विराट् दश संख्या का वाचक है । जीवों के क्रमविकाश दश पर्याय में होता
है । अतः मृत्यु को दशमदशा कहते हैं । “वनजौ (जलजौ) वनजौ
खर्वः त्रिरामाः सकृपऽकृपः” के अनुसार दो जलज (मत्स्य, कूर्म), दो वनज (वराह, नृसिंह),
वामन, तीन राम (पर्शुराम, राम, वलराम), कृपाशील कृष्ण तथा अकृपाशील (दुष्टविनाशक)
कल्की, यह दश अवतार प्रसिद्ध हैं । शतपथब्राह्मणम् का विकर्षण विज्ञान (theory of evolution) के मत में प्राणीमण्डल का विकाश
अवका-वेतस-मण्डुक भेद से जल में आरम्भ हुआ था । जल से अवाञ्छित द्रव्यों को दूर कर
के उसका शुद्धता रक्षा करनेवाला सत्स्य प्रथमअवतार है । जो स्थल में भी रहसकता है,
परन्तु जलजउद्भिद का आहार कर उसका सन्तुलन रक्षाकरता है, ऐसा जलचरप्राणी कूर्म
द्वितीय अवतार है । जल के समीप रहनेवाला स्थलचर वन्यप्राणी वराह तृतीय अवतार है ।
हिंस्र वन्यप्राणी रूपी नृसिंह चतुर्थ अवतार है । मानव के प्रथमविकाश के परिचायक
वामन पञ्चम अवतार है ।
हिंस्र समाजगठन के परिचायक पर्शुराम षष्ठ अवतार है । सभ्य समाजगठन के परिचायक राम सप्तम अवतार
है । कृषिमूलक समाक के प्रतिष्ठाता बलराम अष्टम अवतार है । सम्पन्न एवं तुष्ट समाज
के स्वाभाविक विशृङ्खला को अपने बुद्धिबल से शृङ्खलित करने वाले कृष्ण नवम अवतार
है । दुष्टदमन शिष्टपालन करनेवाले कल्की दशम अवतार है ।
उपरोक्त वर्णना साधारण
मनुष्यों के वोधगम्य होने के लिये पुराणों में सरलभाषा में गल्पाकार में कहागया है
। परन्तु ब्राह्मणम् ग्रन्थों में इसका अन्तर्निहित गूढ वैज्ञानिक अर्थों का
व्याख्या कियागया है । दशावतार में से प्रथम पाँच उत्सर्पिणी काल में तथा अन्य पाँच अवसर्पिणी काल
में अवतरित होते हैं । अतः प्रथम पाँच अवतार सृष्टि सम्बन्धिनी तथा शेष पाँच अवतार
में से चार द्वि-द्वि क्रम से वृद्धि तथा विपरिणाम एवं अन्त में संहार के परिचायक
होते हैं । इस रूप से यह काल के विवर्त के परिचायक हैं । कालविभाग के अनुसार
सत्ययुगमें 4, त्रेता में 3, द्वापर में दो तथा कलीयुग में एक कल्की अवतार होते
हैं ।
कौन अवतार ग्रहण
करते हैं ।
कर्म हि जगत् के
प्रतिष्ठा का कारण है (न हि कश्चित्क्षणमपि जातु
तिष्ठत्यकर्मकृत् – गीता 3-5) । सततचलन रूपी कर्म के कारण इसे जगत् कहा
जाता है (गच्छतीति जगत्) । अपेक्षाबुद्धि (इच्छित फल लाभ करने की आशा) से जो कर्म
किया जाता है, उसमें प्रतियत्न रूपी संस्कार (inertia) का उदय होता है । उपेक्षाबुद्धि से जो कर्म किया जाता है, उसमें संस्कार (inertia) उत्पन्न नहीं होता । संस्कारजात कर्मों का दो
भेद है – प्रक्रम तथा अभिक्रम । क्रत्वर्थकर्म (किसी विशेष आवश्यकता के पूर्त्ति
के लिये किया गया प्रारम्भिक कर्मसमूह) प्रक्रम है । पुरुषार्थ कर्म (अन्तिम फल
लाभ के लिये किया गया सम्मिलित कर्म) अभिक्रम है । अनेक प्रक्रम (यथा भोजन वनाने
के लिये अनाज, सब्जि, तेल, जल, हाण्डी, चुल्हा, इन्धन आदि इकट्ठा करना) से एक
अभिक्रम (रन्धन क्रिया) होता है । अनेक अभिक्रम (भोजन क्रिया, शयन क्रिया, अध्ययन क्रिया, अर्थोपार्जन क्रिया, आदि) से एक कर्मव्युह (यथा जन्म-मृत्यु चक्र) होता है ।
कर्मव्युह से छन्दित
जीवों को परवश हो कर (एकमूल से अनेकरूप में विकशित होने के कारण) अपने लव्ध गुण के
अनुसार कार्य करते रहने से (कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः – गीता 3-5) साधारण आश्वत्थिकजीव कहते हैं । अन्य
मुक्तजीवों को (जो कर्मव्युह से छन्दित नहीँ है) आधिकारिक आश्वत्थिकजीव कहते
हैं । आधिकारिक आश्वत्थिकजीवों का ब्राह्मआश्वत्थिक तथा नियतकर्मआश्वत्थिक दो भेद
है । ब्राह्मआश्वत्थिक जीव जड है, जैसे सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र, पृथिवी, आदि ।
सृष्टिकार्य के प्रतिष्ठा हेतु (इन से ही सृष्टि सम्भव होने से, यह ब्रह्मपदवाच्य
है (ब्रह्म वै सर्वस्य प्रतिष्ठा) । नियतकर्मआश्वत्थिक जीव चेतन होते हैं, जैसे
ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, रुद्र, वरुण, कुवेर, आदि । इनका नित्य तथा नैमित्तिक दो
भेद है । नित्य आधिकारिक नियतकर्म आश्वत्थिकजीव ही प्रयोजन विशेषे नैमित्तिक
रूप में अवतरित होते हैं । यह नैमित्तिक अवतार, प्रयोजन विशेषे पूर्ण-अंश-आवेश-विशेष-अविशेष
आदि होते हैं ।
प्राकृतिक नियम से
प्रज्ञापराध से जव मनुष्यसमाज में अस्वाभाविक परिवर्तन होता है, तव प्रकृति क्षुब्ध
हो जाता है (condition of maximum entropy) । उसी क्षोभ के
आघात से तत्सम्बन्धीय नित्य एवं व्यापक चिदात्मा का एक अंश क्षुब्ध वातावरण को
शान्तकरने के लिये प्रवर्ग्य रूप से (टुट कर अलग हो कर – अग्नि का विस्फुलिङ्ग
जैसा) अधिकृत होकर जीव रूप से अवतरण करता है । उसी आधिकारीक जीव को अवतार कहते हैं
। प्रकृति देवसंघभेद से विभक्त है । जिस विषय में क्षोभ होता है, तत्प्रधान अवतार होता
हैं । प्राकृतिक नियमसंघ ही जगत् को धारण करने से प्राकृतिक सनातन धर्म है ।
मानवकृत नीति-नियम विकृत जीवनादर्श (religion) है । धर्मविप्लव (जब धर्म का धारकशक्ति क्षीण हो कर अनस्था - विप्लवते - जलपर्योवस्थितः
– हो जाता है, धर्म का ग्लानि – बलदीनता - आ जाता है) तथा अधर्म का अभ्युत्थान हीं
अवतार का कारण है । अतः प्रत्येक चतुर्युगी में दश अवतार प्रकट नहीं होते ।
आवश्यकता के अनुसार रुप परिग्रह करते हैं । योगवाशिष्ठ के काकभुषण्ड उपाख्यान
में इसका विशेष विवरण है ।
जिस धर्मविप्लव से रक्षा
के लिये अवतार होते हैं, उस उद्देश्य के चरितार्थ होने के पश्चात् अवतारपुरुष
लीलासम्बरण करते हैं । विकारः प्रकृतेर्जातः पुनस्तत्रैव लीयते – समस्त विकार प्रकृति से जन्म ले कर पुन- उसीमें लयप्राप्त होते हैं । अवतार
जात एवं लयशील होने से वैकारिक हैं । अतः अविकारी ब्रह्म का अवतार नहीं हो सकता । सर्वपूर्णता
हेतु से ब्रह्म के सम्बन्ध में प्रवर्ग्य (विच्छिन्न अंश) अथवा अव (स्वस्थान से
भिन्न प्रदेश में जाना) शव्द का व्यवहार नहीं हो सकता (प्रवर्ग्य, अव, अंश आदि का
स्वतन्त्र भिन्न अवस्थान होता है, जो सर्वव्यापी के क्षेत्र में सम्भव नहीं है) ।
अतः ब्रह्म का षोलहकला विशिष्ट पूर्णावतार सम्भव नहीं है । अष्टकला से ऊर्द्ध्व
सम्बलित जीव देवयोनि होते हैं । अवतार नवम से चतुर्दश कला सम्बलित जीव होते हैं ।
द्वादश से ऊर्द्ध्व कला सम्बलित जीव को पूर्णावतार कहते हैं ।
वेद में अवतार ।
कुछ मित्रों का प्रश्न है
कि क्या वेद में भी अवतार का वर्णन अथवा प्रतिषेध है । इस प्रसङ्गमें यजुर्वेद
34-53 (अजः एकपात्) तथा 40-8 (स पर्य्यगाच्छुक्रमकायम्) मन्त्रों का उद्धरण किया
जाता है । अव हम इन दो उद्धरणों का अनुशीलन करेंगे । वेद पूर्ण एवं
सर्वस्वतन्त्र होने से, उसमें इन समस्त अर्थों का समाहार रूप दिखता है
। आंशिक अर्थ करने से भ्रान्ति अवश्यम्भावी है ।
यजुर्वेद 34-53 मन्त्र का ऋषि ऋजिष्वं,
लिङ्गोक्ता देवता, भुरिक् पङ्क्ति छन्द है । अथवा त्रिष्टुप् छन्द है, यो मन्त्रके
द्वितीयार्द्ध में दिखता है । इसका रक्षाकर्म में विनियोग होता है । मन्त्र का
पदपाठ है – “उत । नः । अहिः ।
बुध्न्यः । शृणोतु । अजः । एकपादित्येकऽपात् । पृथिवी । समुद्रः । विश्वे । देवाः
। ऋतावृद्धः । ऋतवृद्धऽइत्युतऽवृद्धः । हुवानाः । स्तुताः । मन्त्राः । कविशस्ताऽइति
कविऽशस्ताः । अवन्तु ।“ इसका साधारणतया
अर्थ किया जाता है – अन्तरिक्षमें होनेवाला मेघ के तुल्य, अथवा पृथिवी तथा समुद्र
के तुल्य, एक प्रकार के निश्चल अव्यभिचारी वोध वाला, जो कभी उत्पन्न
नहीं होता, वह हमारे वचन को सुने तथा ऋत को वढानेवाले स्पर्धा करते हुये
विश्वेदेवा, जो सर्वज्ञ, सर्वत्रगति, सर्ववर्णनकर्ता (कवि), एवं कल्याणकारी (शस्ताः)
हैं, वे स्तुति के प्रकाशक (स्तुताः), विचार के साधक (मन्त्राः) हमारी रक्षा करे ।
यहाँ स्तुति का अर्थ “स्तुतिस्तु नाम्ना रूपेण कर्मणा
बान्धवेन च” (बृहद्देवता) है – स्तुति
वह है जिससे विभागपूर्वक नाम, वर्णनीय इन्द्रियग्राह्य रूप, सामर्थ्यप्रकाशक कार्य
(भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसञ्ज्ञितः – गीता 8-3), तथा सम्पर्कसूत्रयुक्त बन्धु
का उल्लेख किया जाता है । अतः यहाँ आक्षरिक अर्थ से परे उनका गुण-कर्म का समीक्षा
करना चाहिये । तभी मन्त्र अर्थपूर्ण तथा फलप्रसू होगा ।
यहाँ “अजः एकपात्” शव्द का अर्थ एकादश रुद्रों में से रूद्रविशेष
अथवा प्राणविशेष अर्थमें किया गया है । “न जायते सः” अर्थमें अजः का अर्थ अजन्मा है । यो अजन्मा है, उसका अवतरण
नहीं हो सकता । “एकः पादो यस्य सः अर्थमें
एकपात्” का अर्थ विश्व है (पादोऽस्य विश्वाभूतानि) ।
विश्व का भी अवतरण नहीं हो सकता । कारण “चरणसंचारयोग्य” भूमि का लक्षण है । बुध्न्यः शव्द बृक्षमूल तथा अग्रभाग –
दोनों अर्थमें व्यवहार होता है, जैसे कि अथर्ववेद 2-14-4 में मिलता है । अहि शव्द आहन्तीति अर्थमें
वृत्रासुर, सर्प, सूर्य, आदि के लिये व्यवहार होता है । अतः अहिबुध्न्य शव्द का
अर्थ संलग्न तथा भेदनशील होता है । जो अजन्मा है, उसका संलग्न तथा
भेदनशील होना सम्भव नहीं है । इसीलिये केवल “अजः एकपात्” शव्द को ले कर यह मन्त्र का अर्थ करना भ्रमात्मक होगा ।
अजैकपात् तथा अहिर्बुध्न्य
एकादश रुद्रों में से दो का नाम है । मन्त्र का त्रिष्टुप छन्द तथा लिङ्गोक्ता
देवता भी इसी दिशा को निर्देश कर रहे हैं । जहाँ अथर्वशिरोपनिषत् में
कहागया है कि “एको रुद्रो न द्वितीयाय
तस्मै”, वहीँ, यजुर्वेद रुद्राध्याय में कहा गया है
कि “सहस्राणि सहस्रसो ये रुद्रा अधि भूम्याम्”, तथा “नमो रुद्रेभ्यो
ये पृथीव्यां येऽन्तरिक्षे ये दिवि ....” आदि । यह
विरोधाभास नहीं है, परन्तु एक ही रुद्र का समष्टि तथा व्यष्टि भेद से वर्णन है ।
बृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है “ते यदाऽस्माच्छरीरानमर्त्यादुत्क्रामयन्त्यथ
रोदयन्ति तद्यद्रोदयन्ति तस्माद्रुद्रा इति” । उनका अवान्तर
विभाग ही उस “एको रुद्रो” ( निराकार रुद्रतत्त्व) का (साकार रूप से) सृजन (सृ॒जँ॒
विस॒र्गे - प्रकट) अथवा प्रकटीकरण (अवतरण) है । इसीलिये यहाँ अवतार का निषेध नहीं
- वर्णन है ।
यजुर्वेद 40-8 का
विश्लेषण किया जाता है । यह मन्त्र है –
“स पर्य्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं
शुद्धमपापविद्धम् ।
कविर्मनीषी परिभूः
स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधात्शाश्वतीभ्यः समाभ्यः ।”
इसका साधारणतया अर्थ किया जाता है – “कार्यरहित, व्रणरहित,
स्नायुरहित, अतएव अकाय-अव्रण-अस्नाविर
नाम से प्रसिद्ध, अतएव शुद्ध, पाप्मा से अविद्ध शुक्र के चारों और वह व्याप्त हो
गया - शुक्र को चारों और से घेर लिया । इसप्रकार कवि-मनीषी-परिभू-स्वयम्भू इत्यादि
विविध नामों से प्रसिद्ध उस तत्त्व ने शुक्र के द्वारा यथा तथा रूप से सदा के लिये
पदार्थों का निर्माण करदिया ।“ सर्वप्रथम वह तत्त्व
शुक्र को वेष्टित करता है, एवं वेष्टित शुक्र से विश्व का निर्माण करता है । यह
मन्त्र में आत्मा का स्वरूप निरूपण हुआ है । आत्मा परितः – व्याप्त – आकाशवत्
सर्वव्यापी है । वह शुद्ध शुक्र रूप है । ज्योतिष्मान है । दीप्ति (प्रकाश) स्वरूप
है । अकाय (अशरीरी) है – लिङ्गशरीर से वर्जित है । अक्षत है । शिराशून्य होने से अस्नाविर
है । अव्रण तथा अस्नाविर – इन दो शव्दों से स्थूल शरीर का निषेध किया गया है ।
धर्माधर्मादि पापों से विवर्जित होता हुआ वह अपापविद्ध है । यहाँ स पर्य्यगात्
इत्यादि रूप पुंस्त्वभाव से उपक्रम कर कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूः इत्यादि रूप से
पुंस्त्वभाव पर हि उपसंहार करने से इस वाक्य की पुंस्त्वप्रधानता सिद्ध हो जाती है
। प्रसव ही पुंस्त्व का लक्षण होने से यह मन्त्र विश्वनिर्माण प्रक्रिया को इङ्गित
करता है ।
इस मन्त्र के पूर्व “अनेजदेक” मन्त्र से
श्रुति ने यज्जु (यत् + जु) रूपी द्विब्रह्म में मातरिश्वा द्वारा सुब्रह्म अथवा
गोपथ ब्राह्ण वर्णित स्वेदब्रह्म (आप-वायु-सोम-अग्नि-यम-आदित्य रूपी षड्ब्रह्म)
का आधान करने का प्रक्रिया वतलाया था (इसको जानने के लिये कामप्र, दर्श, पूर्णमास,
प्रतिपत्, अनुचर आदि को समझना पडेगा) । उसी मातरिश्वा को लक्ष्य में रखकर यहाँ शुक्र
का निरूपण किया गया है । उस मातरिश्वा ने आप को उस अनेजदेजत् तत्त्व में आहुति दी
। इस से शुक्र का स्वरूप निष्पन्न हुआ । उस शुक्र के चारों ओर वह मातरिश्वा
व्याप्त हो गया । इस प्रकार वह मातरिश्वा, जो कि तत्तद्विशेषधर्मों के कारण कवि-मनीषी-परिभू-स्वयम्भू
इत्यादि विविध नामों से प्रसिद्ध है, उस अकाय-अव्रण-अस्नाविर, शुद्ध, अपापविद्ध शुक्र
के चारों ओर व्याप्त हो कर सृष्टिनिर्माण में समर्थ हुआ, जो सृष्टिप्रवाह सदा के
लिये एक सा चला आ रहा है । मुण्डकोपनिषद 3-2-1 में भी यही प्रतिपादन किया गया है ।
सृष्टि के लिये रेत-योनि-रेतोधा तीन तत्त्व अपेक्षित
है । इनमें योनि में रेत का आधान
करनेवाला रेतोधा कहलाता है । प्रजापति के पास केवल अपने आपको (ब्रह्माग्निरूप
यजुर्ब्रह्म को) छोडकर अन्यवस्तु का अभाव है । इस अभाव के पूर्ति के लिये वह अपने
को द्विधाकृत करता है (प्रजापति अकामयत) । एक भाग से वह ब्रह्म (यजुर्ब्रह्म) वन
कर सवका प्रतिष्ठा वनता है (ब्रह्म वै सर्वस्य प्रतिष्ठा) । अन्य भाग
सुब्रह्म अथवा स्वेदब्रह्म (आप) वनता है । यजुः अग्नि है – योनि है । आप सोम है –
रेत है । मातरिश्वा रेतोधा है ।
पृथिवी को माता कहाजाता
है । पृथिवी पिण्ड का उपलक्षण है । पिण्ड आग्नेय है । इसीलिये अणु से लेकर
नीहारिका पर्यन्त सवके भीतर अग्नि है । इनका चित्य-चितेनिधेय दो भेद है । चित्य
आभ्यन्तर मूल पिण्ड (s-orbital of nucleus, also the quarks) है । चितेनिधेय वाह्य महिमामण्डल (intra-nucleic field, also gluons) है । आङ्गीरस यम वायु (fermions that follow
exclusion principle) सृष्टि का
निवर्त्तक – विच्छेदक है (यमो वै अवसानस्येष्टे – शतपथब्राह्मणम् – 7-1-1-3) ।
भार्गव शिववायु (leptons and bosons) सृष्टिका
प्रवर्त्तक है । गोपथब्राह्मणम् में इसका प्राण, पवमान, मातरिश्वा, सविता – यह चार
अवस्था (four
quantum numbers) कहागया है । इनमें
से प्राण, पवमान, सविता (p, d, f, orbitals) – यह महिमामण्डल (intra-nucleic field) से सम्बन्धित है । इनका विकास चित्य पिण्ड के
उपर निर्भर करता है । मातरिश्वा (s-orbital) इनको रूप देता
है । पिण्ड निर्माण करना तथा निर्मित पिण्ड को स्व स्वरूप में प्रतिष्ठित करना, यह
दो कार्य (two spin functions – the first function has two spin states), मातरिश्वा वायु के है । आग्नेय वायु के
प्रवेश से आपोमय समुद्र (quark-gluon plasma) में घनता आ जाती है । इसे ही अपांशर (super-fluid) कहाजाता है । इसी के लिये
अद्भ्यः पृथिवी कहा जाता है ।
मत्स्य अवतार ।
नासदीयसूक्त (ऋग्वेद
10-129) के अनुसार सृष्टि से पूर्व सवकुछ अवात अर्थात् प्राणशून्य (अतः क्रियाशून्य)
था । उस समय नार (न+अर) सर्वत्र व्याप्त था ।
निषेधात्मक अ अक्षर के साथ गत्यात्मक र अक्षर युक्त होनेसे अर शव्द का अर्थ
गतिराहित्य है । न अक्षर के द्वारा उसका पुनः निषेध करने से नार शव्द का असामान्य
अर्थ गति तथा आगति – इन दोनों का राहित्य अर्थात केवल अन्तर्गति है । वाहर से
गतिशून्य अथच भीतर से सदा गमनशील होने से इसे जगत् कहते हैं (गच्छतीति - ग॒मॢँऽ गतौ॑)
। उस जगत को परिव्याप्त कर के शयन (वहिरिन्द्रिय संयमन) करनेवाला तत्व को विष्णु
कहा जाता है (वि॒षॢँ॑ व्या॑प्तौ) । नार उनका अयन (सीमित संयमन स्थान) होने से उनको
नारायण कहा जाता है । गतिशून्यता के कारण उष्मता का सर्वथा अभाव होने से उस का
वहिर्मण्डल को आपः (आपॢँ लम्भ॑ने – लभन्ति पुनरुत्थानमिति) कहते हैं । शीतलता आपः
का लक्षण है । इसीलिये कहा जाता कि जगत् प्रलयजल में मग्न था । अथर्ववेद 4-2-8 तथा
गोपथब्राह्मणम् पूर्वभाग 1 प्रपाठक 39 कण्डिका के अनुसार उस तत्त्व को पुरुष कहा
जाता है (आपो गर्भं जनयन्तीरित्यपाङ्गर्भः पुरुषः) ।
जब यह आप्य परमाणु (gluons) एवं पार्थिव परमाणु (quarks), उस आपोमय समुद्र (quark-gluon plasma) में ऋतरूप (भातिसिद्ध-अहृदय-अशरीरी – non-physical,
non-centralized, not-confined) से इतस्ततः
व्याप्त रहते हैं । जब वह किसी बिन्दु (प्रतिष्ठा – center of mass) पर एकत्र होकर शक्तिसाम्य (equilibrium) अवस्था में आ जाते हैं, तब स्थितियुक्त हर्ष
का अनुभव करते हैं । इसीलिये इस अवस्था को मत्स्य (माद्यन्तिलोका अनेनेति – मद् + ऋतन्यञ्जीति इति स्यन् - मदँ॒
तृप्तियो॒गे, मदीँ हर्षे॑) कहते हैं ।
यह प्रजापति का प्रथम मत्स्य अवतार है ।
वहिस्थ इन्द्रियार्थ के
साथ अन्तःस्थ मन तथा आत्मा के सन्निकर्ष से वेदनीय ज्ञान उत्पन्न होता है । सृष्टि
के आरम्भमें वहिरिन्द्रिय का संयमन होना वाह्यज्ञान का अभाव को दर्शाता है । इसी
अवस्था को वेद का आपः (जल का सम्यक उद्रेकस्थान होने से समुद्र) में लुप्त हो जाना
कहते हैं । इसका कारण शङ्खासुर है । शमँ॒ऽ आ॒लोच॑ने (अथवा शमो दर्श॑ने [मित्])
धातु से जात कोषस्थ अर्थात् अन्तःस्थ अवस्था को शङ्ख कहते हैं । कहागया है –
कम्बुशङ्खनखाश्चापि
शुक्तिशम्वुककर्कटाः । जीवा एवंविधाश्चान्ये कोषस्थाः परिकीर्त्तिताः ।
स्वीकृति अर्थमें सु
पूर्वक रा॒ दा॒ने धातु से सुर शव्द निष्पन्न हुआ जो सृष्टि का सहकारीत्व दर्शाता
है । तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषा मधः स्वीदासी३दुपरि स्वीदासी३त् (नासदीयसूक्त) के
कारण सृष्टिप्रव्रतक रश्मियाँ तरङ्गायित गति करते हैं । उसका निषेध करने से असुर
शव्द सुराशक्ति विहीन – अतएव अतरङ्गायित (अतः असुर) होने से सृष्टि का असहकारीत्व प्रदर्शन करता है । इस
कारण से उस कोष को शङ्खासुर कहा जाता है । इसी को तैत्तिरीयारण्यकम् – प्रथम प्रश्न में “असुरान् परिवृश्चति” (परि सर्वतोभावः, वृशँ वर॑णे) कहागया है । उसी में आगे चल कर कहा गया है –
पृथ्विव्यगंशुमती । तामनवस्थितः सम्वत्सरो दिवं च । ... अन्योन्यस्मै द्रुह्यताम्
। यो द्रुह्यति । भ्रश्यते स्वर्गल्लोकात् । (द्रुह् । द्रुः॒अँ जिघां॒साया॑म्) ।
शतपथब्राह्मणम् 6-1-1-2
में कहागया है कि – स योऽयं मध्ये प्राणः एष एवेन्द्रः । किसी पिण्ड के मध्यस्थ
प्राण, यो सबको सञ्चालित करता है (बलस्य निखिलाकृति – बृहद्देवता), उसे इन्द्र
कहते हैं । उस आपोमय समुद्र में जब यह इन्द्र सृष्टिकामना से गति करता है, उसे द्रप्स्यः
(घनेतरदधि – वया दइ, निरुक्त में इसे शुक्र
कहा गया है) कहते हैं (इन्द्राय सर्वान्कामानभिवहन्ति । स द्रप्सः ।
तैत्तिरीयारण्यकम् – प्रथम प्रश्न) । अन्तरिक्षमें जब यह इन्द्र आपोमय समुद्र को
चलायमान करता है, तब उस गतिद्वारा घर्षण से जात अग्नि को पवमान कहते हैं (पार्थिव अग्नि पावक, आन्तरिक्ष्य
अग्नि पवमान, द्वौ लोकाग्नि शूचि – निरुक्त) । इसीको मातरिश्वा कहते हैं (मातरि
अन्तरिक्षे श्वयति बर्धते इति) । (At that time, leptons and fermions whizzed through space
which such high speeds, that electromagnetic attraction was not strong enough
to bind them together. The, space was filled with a hot plasma that gave off
thermal radiation. During that time, the universe was opaque to photons.
Photons would bump into electron-sea frequently. The scattering of photons
results in a mostly non-transparent universe.)
गोपथब्राह्मणम् पूर्वभाग
1 प्रपाठक 2 कण्डिका के अनुसार आगति रूपी (confining) विष्णु ने श्रम किया, तप किया (श्रमुँ तप॑सि), सन्तप्त हुआ (श्रमुँ खे॒दे च॑,
खि॒दँ परिघा॒ते)। Confinement leads to generation of opposite pressure (तप), which continues inside the confinement leading to
increase in temperature. उससे उस आपोमय
समुद्र (quark-gluon
plasma) में स्वेद (ष्वि॒दाँ
गात्रप्रक्षर॒णे, ञिष्विदाँ॒ स्नेहनमोच॒नयोः॑) धारा (different strands) वहने लगा । उससे 15 प्रकार के अविद्या (कर्म)
बल कोष (माया, जाया, धारा, आपः, हृदय, भूति, यज्ञ, सूत्र, सत्य, यक्ष, अभ्व, मोह,
वय, वयोनाध, वयुन) तथा 16 वाँ विद्या – यह 16 कला उत्पन्न हुये । यह बलकोष अखण्ड
संसार को सखण्ड तथा खण्डाखण्ड कर के गतिशील करने के पश्चात् असुरत्व का नाश हो कर तरङ्गायित
गति सृष्टि करने से आलोचन का विकाश हुआ (रजसा उद्घाटितम् – दर्शन के लिये
रूपवत्त्व, अनेकद्रव्यवत्त्व तथा महत्त्व अपेक्षित होते हैं) । इसे हि विष्णु के
द्वारा शङ्खासुर का वध (ह॒नँ हिंसाग॒त्योः) कहा गया है ।
सृष्टि संसृष्टि है –
अर्थात दो वस्तुओँ के संयोग के उपर निर्भर करती है । यह संयोग को यज्ञ कहते हैं (य॒जँ॑
सङ्गतिकरणे) । इसीलिये उसके अनुकुल स्थान (अधिष्ठान) को प्रयाग कहा गया है । गोपथब्राह्मणम्
पूर्वभाग 1 प्रपाठक 39 कण्डिका के अनुसार आपः का दो पूरकभाव (complement) भृगु तथा अङ्गिरा से सृष्टि का विकाश हुआ ।
समष्टि भृगु के व्यष्टि 3 भाग आप-वायु-सोम (three leptons) है तथा समष्टि अङ्गिरा के व्यष्टि 3 भाग अग्नि-यम-आदित्य है
(three
positively charged quarks – up, charm and top. According to modern science,
they have fractional charge of +2/3, while down, strange, and bottom quarks all
have a charge of -1/3. According to Vedic science, these are +7/11 and -4/11
respectively, which can be scientifically verified to be more accurate) । इनके कार्य-कारण
सम्बन्ध (causality) 13 प्रकार के हैं
(हेतुर्निमित्तं प्रकृतिश्च योनिं प्रारव्धमूलै प्रभवोद्भवौ तथा ।
विवर्त्तसंचारीरसप्रवाहिकप्रकृत्यपूर्वं समवायिका मताः) । इन्हि सम्बन्धों से
सृष्टि का समस्त उपादान (building blocks of nature) का निर्माण होता है । आपः का एक अर्थ जल होनेसे 3 नदीयोंके
सङ्गमको प्रयाग कहाजाता है । यही प्रयाग में विष्णुके द्वारा शङ्खासुरके वध का
रहस्य है ।
कूर्मावतार ।
शतपथब्राह्मणम् – 7-5-1-1 में कहा गया है – “कूर्ममुपदधाति । रसो वै कूर्मः ।
रसमेवैतदुपदधाति । यो वै स एषां लोकानामप्सु प्रविद्धानां पराङ्रसोऽत्यक्षरत् स एष
कूर्मः । तमेवैतदुपदधाति । यावानु वै रसः तावानात्मा । स एष इम एव लोकाः ।“ विश्व में परिव्याप्त रसः (quark-gluon
plasma) ही विश्व का मूल
प्रतिष्ठा है (यावानु वै रसः तावानात्मा) । एषां पृथिव्यादीनां लोकानाम् (quark) अप्सु (gluon)
प्रविद्धानां मग्नानां (plasma) सः रसः अत्यक्षरत् अस्रवत् । “कुत्सितः ईषद् वा ऊर्मी वेगो अस्य” अथवा “के जले
ऊर्मीयस्येति वा” अर्थमें इस धनीभूत – इसीलिये पूर्वापेक्षा स्वल्पगतियुक्त तत्त्व को
कूर्म कहते हैं (This is opposite of inflation. Modern science believes that after the big
bang, there was a period of rapid acceleration. Vedic science says, after the
initial expansion through the static background was brought to zero due to
bow-shock effect (धर्मचक्र के
नेमी निषीर्ण होने से जिसे नैमिषारण्य नाम से जाना जाता है – समुह को ग्राम तथा
एकक को अरण्य कहते हैं । वह अपने स्वरूप में एक होने से उसे अरण्य कहते हैं), the back reaction
started to and fro slowing down with time. This implies, the velocity of light
is decreasing with time.)। उस पार्थिव
एवं आप्य (जलीय) परमाणुओं का सम्मिस्रण से जो तत्त्व का उत्पन्न हुआ (quark-gluon plasma), उसी से हि विश्व का सृजन हुआ । दुः॒अँ॑ प्र॒पूर॑णे इति दुह्
धातु से दुह्यतेऽस्मेति अर्थ में विश्व को पूरण करनेवाला उस मूल तत्त्व को दुध कहा
जा सकता है । दुध का स्वगुण परिवर्तन हो कर घनीभूत हो जाना ही दधि है । दधातीति
दधि । इसीलिये उस मिश्रित घनीभूत रस को दधि कहा जाता है ।
वह रस क्या था ? दधिरूप रस का यह आवर्तन किसी अधिष्ठान का अपेक्षा रखता है । उसका अधिष्ठान
क्या था ? शतपथब्राह्मणम् – 7-5-1-3 में कहा गया है – “दधि हैवास्यलोकस्य रुपम्,
धृतमन्तरिक्षस्य मध्वमुष्य । स्वेनैवैनमेतद्रूपेण समर्धयति । अथो दधि
हैवास्यलोकस्य रसः, धृतमन्तरिक्षस्य मध्वमुष्य । स्वेनैवैनमेतद्रसेन
समर्धयति ।“पार्थिव परमाणुओं का चयन
(एक ही बिन्दु पर बार बार संघात) आपोमय समुद्र को घनीभूत करता है । इससे
अन्ततोगत्वा द्वौ लोक का रस मधु (not honey – मन्यन्ते –
विशेषेण जानन्ति जना यस्मिन्) का निर्माण होता
है (पवमानः सन्तनिः प्रघ्नतामिव मधुमान् द्रप्स्यः परिवारमर्षति – ऋग्वेद 9-69-2)। उसीमें सदा घूर्णनशील सम्वत्सर तथा द्यौः लोक (radiating discs
and galactic
clouds) का निर्माण हुआ
(तामन्ववस्थितः संवत्सरो दिवं च - तैत्तिरीयारण्यकम् – प्रथम प्रश्न) ।
दधि का आवर्त होनेसे धृत निकलता है (आवर्तमिन्द्रः शच्या धमन्तम् - तैत्तिरीयारण्यकम्
– प्रथम प्रश्न), जो आग्नेय होता है
(अवद्रप्सो अगंशुमतीमतिष्ठत् - तत्रैव) । यह अग्निषोमात्मक मण्डल (electromagnetic field) का निर्माण करता है । वह मिथुन का उत्पादन करता है । इसीसे वस्तुमें परिच्छिन्नता
रूपी परिमाण आने से वस्तुओं का विभिन्न स्वरूप का अवबोधन होता है (प्रजायते)। इसीलिये इसे मधु (मानँ॒ स्त॒म्भे, मनुँ॒ अव॒बोध॑ने, म॒नँ॒ ज्ञाने॑)
तथा शची (शचँ॒ व्य॑क्तायां वा॒चि) भी कहते हैं । स्वरूप अवबोधन अस्तित्व के साथ
साथ ज्ञेयत्व तथा अभिधेयत्व का अपेक्षा रखता है । शव्दका चुम्बकीयशक्ति के साथ
सम्बन्ध विज्ञान प्रतिपादित है । इसीलिये कहागया है “वाचं देवा उपजीवन्ति विश्वे वाचं गन्धर्वा पशवो मनुष्याः।
वाचीमा विश्वा भुवनान्यर्पिता सा नो हवं जुषतामिन्द्रपत्नी” (तैत्तिरीयब्राह्मणम् २/८/८/४)। इन्द्रद्वारा व्यक्तवाक्
का निर्माणहोनेसे वाक् को इन्द्रपत्नी कहागया । गन्धर्वः सोमरक्षकः रश्मीनां धारकः ।
शतपथब्राह्मणम् – 7-5-1-5 में कहा गया है – “स यत् कूर्मो नाम । एतद्वै रूपं कृत्वा प्रजापतिः प्रजा ऽअसृजत । यदसृजत अकरोत्
तत् । यदकरोत् तस्मात्कूर्मः । कश्यपो वै कूर्मः । तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः
काश्यप्य इति ।“घनीभूत उस मूल तत्त्व पूर्वापेक्षा
स्वल्पगतियुक्त हो कर कूर्म नाम से सृष्टि का आरम्भ किया । उसका वह मूल रूप कश्यप
था । कशँ॒ गतिशास॒नयोः॑ अर्थमें कश् धातु से पा॒ पाने॑ अथवा पा॒ रक्ष॑णे योग से
कश्यप शव्द निष्पन्न होता है, जो नीहारिकाकेन्द्र (Galactic center) का द्योतक है । इसीलिये शतपथब्राह्मणम् – 7-5-1-6 में कहा गया है – “स यः स कूर्म्मोऽसौ सऽआदित्यः ।
अमुमेवैतदादित्यमुपदधाति । तं पुरस्तात्प्रत्यञ्चमुपदधात्यमुं तदादित्यं पुरस्तात्प्रत्यञ्चं
दधाति । तस्मादसावादित्यः (आदित्यः आददानां यान्ति । दो॒ अव॒खण्ड॑ने । तन्निषेधः
।) । आगे चलकर श्रुति विश्वप्रक्रिया का वर्णन करती है, जो यहाँ विचार नहीं किया
जा रहा है ।
नीहारिकायें (Galaxies) एक
जैसी नहीं होती । इन का 7 अवान्तर विभाग होते हैं (seven different types of galaxies, such as) – आरोगो भ्राजः पटरः पतङ्गः । स्वर्णरो
ज्योतिषीमान् विभासः । ते अस्मै सर्वे दिवमातपन्ति (तैत्तिरीयारण्यकम् – प्रथम प्रश्न) । परन्तु इनसे अलग अष्टम ही कश्यप है (कश्यपोऽष्टमः । तत्रैव) ।
कश्यप ही आरोगादि सप्त का प्रभव, प्रतिष्ठा, परायण है (ते अस्मै सर्वे
कश्यपाज्ज्योतिर्लभन्ते । तत्रैव) । कश्यप से ही सव सृष्टि कर्म होता है (यत्ते
शिल्पंकश्यप रोचनावत् । तत्रैव) । उसी से ही इन्द्र (मूलप्राण) का अनुमापक
(गत्यात्मक) चतुष्टयात्मिका पुष्टि (four quantum numbers) का सृजन होता है (इन्द्रियावत्पुष्कलं चित्रभानु । तत्रैव । इन्द्रियम्
इन्द्रस्य आत्मनोलिङ्गम् – अनुमापकम् । पुष्कलम् – पुष्यति चतुष्टयात्मक पुष्टिं
गच्छत्यनेनेति । पुष्कलं हन्तकारन्तु तच्चतुर्गुणमुच्यते – कौर्मे) । इनका
उपादानभेद से सप्तविभाग (seven types of galaxies) हो जाता है (यस्मिन्त्सूर्या अर्पितास्सप्त साकम् ।
तत्रैव । उपादानविकल्पाश्च लिङ्गानां सप्त वर्णिताः) ।
कश्यप ही विश्व का मूल
केन्द्र है । उसका गति सर्वतो गति है । विश्व में गति (relative motion between inertial frames of reference) 3 प्रकार का है । अवयवगति, अवयवीगति, उभयगति
। कुलालचक्र का गति अवयवगति है । चक्र के अङ्ग अङ्ग (अवयव) घुम रहे हैं । परन्तु
चक्र (अवयवी) स्वयं (सूर्य) अवयव के अपेक्षा से एक ही स्थान पर स्थित है (जैसे कि सूर्य
के अपेक्षा में सौरमण्डल) । किसी यान का गति अवयवीगति है । यान के अङ्ग अङ्ग
(अवयव) यान के अपेक्षा से स्थिर है, परन्तु यान गतिशील है (जैसे कि आकाशगङ्गा के
अपेक्षा में सूर्य तथा सौरमण्डल) । किसी यान पर वैठ कर मनुष्य का जाना उभयगति है ।
कारण केवल चेतन मनुष्य ही समस्त गतितत्त्व का ज्ञाता हो सकता है । इसी तथ्य को
सामने रखते हुये श्रुति कहती है कि “स महामेरुं न
जहाति” (तत्रैव । जहातीति हा । हा ओँहा॒ङ् गतौ॑
आत्मनेपदी । हा ओँहा॒क् त्या॒गे परस्मैपदी) । उपादानों का क्रिया से उसमें
आपेक्षिक उन्मेष-संकोच क्रिया (pulsating like pulsars) का आरम्भ हो जाता है (भ्रस्ताकर्मकृदिवैवम् । तत्रैव । This appears as the
expanding universe) । उसीसे समस्त
चित्-अचित् क्रिया (sentient and inert efforts/operations) का आरम्भ होता है (प्राणो जीवानीन्द्रियजीवानि । तत्रैव) ।
इसी विज्ञान को सम्मुख
रखते हुये श्रुति कहती है – “प्राणो वै कूर्मः
। प्राणो हीमाः सर्वाः प्रजाः करोति । प्राणमेवैतदुपदधाति” (शतपथब्राह्मणम् – 7-5-1-7) । (The thermal radiation
of the plasma in the recombination era was emitted into all directions and from
all points in space. Since the plasma was very hot at that time, and the black
body radiation at that temperature is अरुणवर्णः (orangey), the whole universe was filled with orange light (रोहित). The universe during this time saw the first
stars being formed, but the only radiation emitted was the hydrogen line. The rest was to follow in वराह अवतार ।)
मरीचि (primordial radiation) से उत्पन्न, अतः मारीच, कश्यप से उत्पन्न
पार्थिव पिण्ड कूर्माकार है । कूर्म का बुध्न (मूलदेश – जैसा कि अथर्वणे 2-14-4)
समधरातल युक्त है । उपर का भाग वर्त्तुल द्यौ जैसा है । मध्य में अन्तरिक्ष कूर्म
का उदर है । कूर्म और कश्यप का आकार एक है
। वह अप् तत्त्व का केन्द्र में – जहाँ उसका गहराइ का पराकाष्ठा है, वहीं पर
प्रतिष्ठित है । यह है कूर्म अवतार का रहस्य ।
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