ब्राह्मीस्थिति
क्या है ।
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥गीता २-७२॥
हे पार्थ, यह ब्राह्मीस्थिति है । इसको प्राप्त हो
कर कभी कोई मोहित नहीं होता । इस स्थिति में यदि अन्तकाल
में भी स्थित हो जाय, तो निर्वाण ब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है ।
यह बहु इप्सित ब्राह्मीस्थिति क्या है ? ब्राह्मीस्थिति का अर्थ ब्रह्म जैसे स्थिति । इसका विचार करने के लिये
ब्रह्म का ज्ञान होना आवश्यक है । जैसे एक ही बीज से वृक्ष का तना, शाखा,
प्रशाखा, पत्र, पुष्प, फल आदि वनते हैं,
उसीप्रकार एक मूल ब्रह्म से तूल विश्व वनता है । वृक्ष के
विकाश में पृथ्वी (मिट्टि), जल, तेज, वायु, आकाश का विशेष योग से एक भाव से अपर
भावोदय अपेक्षित है । परन्तु ब्रह्मसे जगत् का उत्पत्तिमें कोइ अन्य तत्त्व सहकारी
कारण नहीं हो सकता – कारण तत्त्वान्तर का अभाव है (ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ नहीं) ।
यद्यपि जगतोत्पत्ति में बल का सहयोग अपेक्षित है, वह ब्रह्म से भिन्न नहीं है (केवल
निजस्वरूपेण अवस्थितस्य यदा वहुस्यां प्रजायेय इति इच्छा-ज्ञान-क्रियात्मिकाः
शक्तयः ताभिर्योगे क्रमेण अर्थ-शब्द सृष्टिअङ्कुरछायावत् युगपदभवतः । तादृशसिसृक्षारूपोपाधिविशिष्टः परमशिव एव केवल
शिवपदवाच्यो भवति । स एव आदिमः तत्त्वः)। ब्रह्म को रस (तैत्तिरीयोपनिषत्
ब्रह्मानन्दवल्ली २-७) और उसका पराशक्तिको बल कहते हैं (सा पूर्वोदिता सिसृक्षा
प्रपञ्चवासनारूपा शक्तिरिति द्वितीयं तत्त्वम्)। दोनों रस और बल निर्विशेष होनेपर
भी इनके संसर्गसे विविध विशेषताएँ उदित होता है । वही विशेषताएँ निर्विशेषको मित –
परिच्छेद – कर, मात्रा और संस्था - यह परिमाण निर्णय करते हैं । इनसे ही सृष्टि
होती है । मान निर्धारण करनेके कारण उस शक्तिको माया कहते हैं (मा॒ङ् माने॑) ।
रस एक एवं अखण्ड है । उसका मात्रासंसर्ग अर्थ बाधाके कारण
घटाकाश जैसा औपाधिक माना जाता है । जो किसी वस्तुमें अन्वित हो और यावत्कालस्थायी
हो तो उसे उस वस्तुका विशेषण कहा जाता है । दोनोंमें से एक हो एक न हो तो उसे
उपाधि कहते हैं । रस
एक एवं अखण्ड है । उसका मात्रासंसर्ग अर्थ बाधाके कारण यावत्कालस्थायी न होने से घटाकाश
जैसा औपाधिक माना जाता है । यही अद्वैत है । “अर्थ बाधा” का तात्पर्य यह है कि रस-ब्रह्म अपरिच्छेद्य अमित है । परन्तु परिच्छेद
मिति का तो प्रत्यक्ष होता है । यदि इसे रस-ब्रह्म में वस्तुतः माना जाय तो नित्य
रस में अनित्यता का प्रसंग होगा । मूल का ही नाश होने से जगत् का अपुनरुत्पत्ति
रूप सर्वार्थ विनाश होगा । अतः रस में खण्डरूपता कल्पित है । बल ही मृत्यु, क्रिया
आदि नाना रूप में स्वयं ही उद्भूत हो जाता है, जिससे पूर्ण, अखण्ड, अमृत रस सर्ग
रूप आवरण से खण्डित प्रतीत होता है । बल-मृत्यु-क्रिया अणुप्रदेशावग्राही है अतः
अणु में भी वह रूप रूप में विभाति है । इससे रस भी प्रदेशावग्राही अणु-महान्
प्रतीत होता है । यही द्वैत है । कथित है कि –
कर्त्तृत्वं तत्र धर्मी कलयति जगतां पञ्चसृष्ट्यादि कृत्ये
।
धर्मः पुंरूपमाद्यात् सकलजगदुपादानभावं विभर्त्ति ॥
स्त्रीरूपं प्राप्य दिव्या भवति च महिषी
स्वाश्रयस्यादिकर्त्तुः ।
प्रोक्तौ धर्मप्रभेदावपि निगमविदां धर्म्मिवद्ब्रह्मकोटी ॥
रत्नत्रय परीक्षा ॥
अमितको मित करनेवाली माया अखण्ड-नित्य नहीं है – सदा चलनशील
है । मित ही माया है और जो मित है, वही मायी ईश्वर है, जो कल्पसूत्रोक्त
षट्त्रिंशत् तत्त्वानि विश्वम् का चतुर्थ तत्त्व है (इदं जगदिति केवलं भेदविषयिणी
या वृत्तिः तद्वान् ईश्वरपदवाच्यः तूरीयं तत्त्वम्) । इस मायाका, जो षष्ठ तत्त्व (इदं
जगदित्याकारिका ईश्वरनिष्ठा भेदविषयिणी वृत्तिः मायापदवाच्या षष्ठं तत्त्वम्) है,
तीनरूप है – सामान्य माया, महती माया अथवा महामाया, तथा योगमाया अथवा विष्णुमाया ।
एक ही बल के मि रूप में आभासित रसमें बलान्तरके सम्बन्धको संसर्ग कहते हैं ।
ब्रह्मके साथ कर्मके संसर्ग यदि शक्त्याश्रयत्व नहीं है, तो उसे स्वरूपसंसर्ग कहते
हैं । शक्त्याश्रयत्व रहने से उसे वृतित्त्वसंसर्ग कहते हैं । स्वरूपसंसर्गके तीन
भेद है – बन्ध, योग और विभूति । इनसे रसमें तीन प्रकारके संस्थायेँ वनती है । बन्ध
क्रमसे वाक्, योग क्रमसे प्राण और विभूति क्रमसे मन वनता है । यह आत्मसर्ग है ।
अतः मन-प्राण-वाक् आत्मसंस्था कहलाती है (स वा अयमात्मा ब्रह्म विज्ञानमयो मनोमयः
प्राणमयः – बृहदारण्यकोपनिषत् ४-४-५) । ज्ञान-क्रिया-अर्थ भी यही है । क्रिया का
शक्ति ही क्रियाशक्ति है । यह तीन रूपमें प्रकाशित होता है – कर्त्तृत्व देवता रूप
में, करण इन्द्रिय रूपमें तथा कार्यत्व भूत रूप से ।
जो नहीं हो कर भी है – ऐसा प्रतीत होता है (अभूत् वा भाति),
उसे अभ्व कहते हैं (जैसे काल, परिमाण, आदि) । जिस अभ्व के द्वारा आत्मामें विकार
का आशङ्का होती है, उसे यक्ष कहते हैं । ब्रह्म के इस अभ्व को तीन रूप से कल्पना
की गयी है । इसे रूप-कर्म-नाम कहा गया है । यह तीनों माया बल है । ज्योतिनिबद्ध बल
रूप है । प्राणसम्बन्ध बल कर्म है । वाक्सम्बन्ध बल नाम है । यह नाम-रूप-कर्म
अभ्वत्रय अव्ययपुरुष और अक्षरपुरुष में प्रवाहनित्य है । उनका कभी उच्छेद नहीं
होता । क्षरपुरुष में यह अनित्य है । जहाँ यह होता है, उसे भाव कहते हैं । रस के
विप्रकर्षण से इसका अभाव होता है । मिति द्वारा विभूति सम्बन्ध से मात्रा और
संस्था वनानेवाली सामान्य माया है । नाम-रूप-कर्म के त्रकूट अभ्व का बन्ध सम्बन्ध
से प्रादुर्भाव करनेवाली महामाया है । जो दो पदार्थों के योगसम्बन्ध होने पर रहती
है, उसे योगमाया कहते हैं । शक्ति से क्रियारूप निमित्त, उससे ज्ञान (प्रकाशभाव),
उससे शक्तित्वमें प्रत्यागमन – इस परिणामप्रवाह ही वाह्यजगत् का मूल अवस्था है ।
अतः परिणामज्ञान ही क्रिया का ज्ञान (प्रकाशितभाव) है । मन में शक्ति भावमें स्थित
संस्कारके साथ प्रकाश अथवा बुद्धि योग होने से वह स्मृतिरूप भाव (द्रव्य अथवा
सत्त्व) होता है । इस प्रक्रिया को परिणाम कहते हैं । वाह्य का परिणाम भी मूलतः
पुरुषविशेषका अभिमान (अध्यात्मभूत पदार्थ) । वाह्य क्रिया और अध्यात्मभूत क्रिया
का संयोगजात परिणाम ही विषयज्ञान है ।
बृहदारण्यकोपनिषत् १-६ में कहागया है कि जो किसीका
उक्थ-ब्रह्म-साम है,
वह उसकी आत्मा है । विश्व कर्मका जो उक्थ-ब्रह्म-साम है, वह ब्रह्म ही है । विश्वका ब्रह्म और कर्म – यह दो विभाग है । परिछिन्न – मित
से बलान्तर के सम्बन्ध से सृष्टि प्रवर्तन होता है । एक ही बल से मित रूप में
आभासित रस में जो बलान्तर सम्बन्ध होता है, उसे संसर्ग कहते हैं । अपने मूल स्वरूप
में स्थित रस-बल के तादात्म्य - एकात्म संसर्ग को स्वरूप संसर्ग कहते हैं । उसका
योग, बन्ध और विभूति – यह तीन भेद है । जहाँ अचिन्त्य स्वतन्त्र प्रवृत्तियों का
कर्ममें साहचर्य होनेसे अपूर्व द्वियोगज सृष्टि होता है, उसे योगसम्बन्ध कहते हैं
। मौलिक स्थिति ब्रह्म है तथा सृष्टिके समयमें कर्माभिमुखी यौगिक स्थिति योग है ।
स्व स्वरूपमें प्रतिष्ठित आत्मा ब्रह्म है तथा सृष्टि अवस्था में अनासक्त कुशल
कर्म ही योग है (योगः कर्मसु कौशलम् – गीता २-५०) । कठोपनिषद (६-११) में भी कहा
गया है कि “तां योगमितिमन्यन्ते स्थिरमिन्द्रियधारणाम्” । धारण कर्म है । ब्रह्म (स्व स्वरूप) में स्थित होना ब्राह्मीस्थिति है
। योग में स्थित होना योगस्थिति है । स्थितिलक्षणा ब्राह्मीस्थिति योगस्थिति का
प्रतिष्ठा है । अमृतलक्षणा ब्राह्मीस्थिति का विकाश गति (अतः मृत्यु) लक्षणा
योगस्थिति के सहयोग से ही सम्भव होता है ।
गीता २-५५ से आरम्भ कर भगवानने स्थितप्रज्ञके
विषयमें अनेक शिक्षायें दी है । अन्तमें स्थितप्रज्ञताको ही ब्राह्मीस्थिति कहा है
। परन्तु स्थितप्रज्ञता प्राप्तिके साधन क्या है । तत्त्वज्ञान के अभाव से
ब्रह्मके स्वरूप ज्ञानके अभाव होता है । तव असत् में सत् तथा सत् में असत् का
व्यामोह हो जाता है । एक तत्त्ववादी जिसे सत् मानकर सुखका कारण कह रहा है,
अतत्त्ववादी लौकिक मनुष्योंके दृष्टिसे वही सत् असत् वना हुआ है । और जिसे लौकिक
मनुष्य सत् मानते हैं, वही तत्त्ववादीके दृष्टिमें असत् है । असत्प्रवृत्ति ही
दुःखका मूल कारण है । विवेकज्ञान ही विषयस्पृहाका निवर्तक है । वही ब्राह्मीस्थितिका
स्वरूपदर्शक है । इसीलिये कहागया है कि – तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः (न्यायसूत्रम्
१-१-१)।
परन्तु हम तत्त्वज्ञान से दूर क्यों चले जाते हैं । भागवत
में व्यासजी ने कहा है कि – बलवानिन्द्रियग्राम ज्ञानीनामपिकर्षति – इन्द्रियों का
समूह वहुत बलवान है । वह ज्ञानीयों को भी भ्रमित कर मोहपाश में डाल देते हैं ।
प्रज्ञानमन का प्रज्ञा और प्राण दो भाग है । उसका प्रज्ञा भाग प्राण द्वारा
विषयसंयोग से आन्दोलित होकर नाशके प्रति अभिमुखी होजाता है (गीता ६२-६३)। वह
कल्पित साकाङ्क्ष्यवृत्ति (फललाभ के कामना के कारण) द्वारा संसार के योगक्षेम
निर्वाहणकारी सामान्यवृत्ति को त्याग कर संस्कारोपहित मोहग्रसित हो जाता है तथा
रागासक्ति-द्वेषासक्ति द्वारा अस्थिर हो जाता है । विषय, बन्धन के कारण नहीं है ।
देहधारीमात्र के सत्ता विषयग्रहण के उपर निर्भर है । कोइ भी जात प्राणी विना कर्म
के क्षणमात्र भी नहीं रह सकता (गीता ३-५) । कारण प्रकृति के परवश हुये सव
प्राणीयों से प्रकृतिजन्य गुण अपने अपने कर्म करवा लेते हैं (कार्यते) । परन्तु
अपेक्षावृत्ति के कारण जात संस्कार से प्रज्ञानमन रागद्वेषात्मिका स्पृहा, लिप्सा,
कामलिप्तता, आसक्ति आदि के द्वारा ग्रसित हो जाता है । वही बन्धन के कारण वनते है
। प्रवर्तनालक्षण अर्थात प्रवृत्ति जनकत्व ही मोह का लक्षण है । मिथ्याज्ञान
स्वरूप मोह का, विचिकित्सा, मान एवं प्रमाद आदि पक्ष है । मोह से राग तथा द्वेष का
उत्पत्ति होता है । आसक्तिस्वरूप राग का, काम, मत्सर, स्पृहा, तृष्णा, लोभ आदि
पक्ष है । अमर्षस्वरूप द्वेष का, क्रोध,
ईर्षा, असूया, द्रोह, आदि पक्ष है ।
मिथ्याज्ञान विपर्यय अर्थात् भ्रमात्मक निश्चय को कहते हैं
। विचिकित्सा भ्रमज्ञान अथवा संशय को कहते हैं । किसी गुणविशेष का आरोप कर के
उसमें अपना उत्कर्ष का ज्ञान को मान कहते हैं । कर्त्तव्यज्ञान के पश्चात्
अकर्त्तव्यत्व बुद्धि तथा अकर्त्तव्यज्ञान के पश्चात् कर्त्तव्यत्व बुद्धि को
प्रमाद कहते हैं । व्याप्यपदार्थ का आरोपप्रयुक्त व्यापकपदार्थ का आरोप अर्थात
भ्रमविशेष तर्क है । अनिष्ट के हेतु उपस्थित होने पर उसके परित्याग में अपने
असमर्थता का ज्ञान भय है । इष्टवस्तु का वियोग होने से उसको पाने में अपने
असमर्थता का ज्ञान को शोक कहते हैं । शोक के उपस्थिति नहीं होनेपर भी काल्पनिक
वियोग को ले कर शोक को अनुशोक कहते हैं ।
स्त्री का पुरुष प्रति तथा पुरुष का स्त्री प्रति
अभिलाषविशेष वा रमणेच्छा काम है । वात्सायन के मतमें पञ्च ज्ञानेन्द्रियों का
आत्मसंयुक्त होकर तथा मन के अधिष्ठान पर अपने अपने विषयों के भोग के प्रति अनुकूल
प्रवृत्ति काम है । आत्मा ही मन के द्वारा इन्द्रियों के द्वार से विषय का भोग कर
के सुख का अनुभव करती है । वही सुखानुभव काम है । रति सम्बन्धिनी काम को वह विशेष
काम कहते हैं । (जननेन्द्रियों के) स्पर्शविशेष के विषय में उसका आभिमानिक
सुखानुबिद्धा फलवत् अर्थप्रतीति को प्रधान्य से काम कहा जाता है । अपना
प्रयोजनज्ञान के अतिरिक्त अन्य का अभिमत निवारण का इच्छा (अपना स्वार्थ सिद्धि,
अन्यका विरोध) मत्सर है । परकीय द्रव्य का ग्रहण विषय में इच्छा स्पृहा है । जिस
इच्छा के कारण पुनः पुनः जन्म लेना पडता है, वह तृष्णा है । उचित व्यय न करके धनरक्षारूपी
कार्पण्य भी तृष्णाविशेष है । धर्मविरुद्ध परद्रव्यग्रहण विषय में इच्छा लोभ है ।
अभिलाष, राग, सङ्कल्प, कारुण्य, वैराग्य, उपधा, भाव इत्यदि इच्छा विशेष है । शरीर
एवं इन्द्रियादिके विकृतिके कारण द्वेषविशेष ही क्रोध है । साधारणवस्तु में अन्य
लोगों का स्वत्व रहने पर भी उस वस्तु के ग्रहीता के प्रति द्वैषविशेष ईर्षा है ।
पर के गुणविशेष के प्रति द्वैषविशेष असूया है । विनाशके कारण द्वैषविशेष द्रोह है
। अपकारी व्यक्तिके अपकार करनेसे असमर्थ होकर उसके प्रति द्वैषविशेष अमर्ष है ।
अपकारी व्यक्तिके अपकार करनेसे असमर्थ होने पर अपने आत्मामें जात द्वैषविशेष
अभिमान है ।
यदि कर्म ब्रह्मको आधारवनाकर कियाजाता है, तो उपेक्षाबुद्धिकृत होनेसे (कर्मफल का आशा नहींरहने से), संस्कारलेप का आत्मा के साथ सम्बन्ध नहीं हो पाता । आत्मा अपनी स्वाभाविक
ब्राह्मीस्थिति में वना रहता है । अतः कहागया है –
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा । (गीता ५-१०) ।
जो सम्पूर्ण कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आशक्ति
का त्याग करके कर्म करता है, वह जल से कमल के पत्ते जैसा पाप से
लिप्त नहीं होता । यदि ब्रह्माधार का परित्याग कर दिया जाता है, तो स्वरूपतः संसक्तिधर्मा कर्म संस्कारलेप (बन्धन) का प्रवर्त्तक वनता हुआ, आत्मा के स्वाभाविक विकाश का आबरक वन कर दुःखप्रवृत्ति का कारण प्रमाणित हो
जाता है । निष्कर्षतः ब्राह्मीस्थिति का सम्यक् परिज्ञान ही व्यामोहनिवृत्ति का
अन्यतम कारण है ।
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